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________________ पर से कुछ भी संबंध नहीं रविवार के बाद सोमवार आता है, यह सच है; पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि सोमवार रविवार के आधीन है। यह सात वारों का क्रम बताने की बात है। इसीप्रकार सम्यग्दर्शन के बाद ही सम्यकज्ञान व चारित्र होते हैं। यह ज्ञान करने की बात है। वस्तुस्वरूप में ऐसा ही क्रम है, इससे वे एक-दूसरे के आधीन नहीं होते। फिर भी क्रम भ्रग भी नहीं होता । यदि कोई सम्यग्दर्शन के बिना ही सम्यक्चारित्र प्रगट करने का असफल प्रयास करे तो ऐसा माना जायेगा कि उसे गुणों के परिणमन क्रम का एवं उनके स्वाधीन परिणमन का बोध नहीं है। द्रव्यार्थिक उपादान-निमित्त की अपेक्षा एक वस्तु के अनंत गुणों में से जिस गुण की मुख्यता से कथन करना हो, उसे उपादान और अन्य को निमित्त कहते हैं। जैसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का विचार करें तो यद्यपि इन दोनों की उत्पत्ति समकाल में ही है, तथापि उसमें सम्यग्दर्शन को मुख्य करके उसे कारण कहा और सम्यग्ज्ञान को कार्य कहा। वैसे ही वस्तु में अनंतगुण एकसाथ कार्य कर रहे हैं; परन्तु उनमें भी जब जिस गुण की मुख्यता से कथन करेंगे तो वह उपादान और अन्य गुण को निमित्त कहा जायेगा। आगम में एक द्रव्य के अन्दर गुणभेद से ऐसे कथन करने की शैली है। जिसप्रकार बाह्य संयोग रूप निमित्त परवस्तु है, उसीप्रकार अन्दर के गुणों में परस्पर निमित्तपना है; किन्तु वह परवस्तु के समान संयोगरूप नहीं है। एक ही वस्तु में गुणभेद कल्पना से मुख्य-गौण करके निमित्त-उपादानपना घटित करते हैं। मुख्य को उपादान व गौण को निमित्त समझना चाहिए। प्रश्न ६५ : एक ही आत्मा में रहनेवाले अनंत गुणों की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध करने/कराने जैसी सूक्ष्म चर्चा से धर्म संबंधी क्या लाभ ? समझने में कठिन भी बहुत है। अत: इस चक्कर में न पड़े तो? उत्तर : अरे भाई ! यह स्वतन्त्रता का शंखनाद है यही जैनदर्शन का मूल द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक निमित्त-उपादान मन्त्र है। जिज्ञासुओं के लिए न तो सूक्ष्म है, न कठिन ही है। बस, थोड़ासा उपयोग एकाग्र करके सुने तो एकदम सामान्य सी बातें हैं। यदि भव में भटकने से बचना है और मुक्ति कन्या को प्राप्त करना है तो इस तत्त्वज्ञान के चक्कर में तो पड़ना ही होगा। एक जन्म की आजीविका के लिए हम इससे भी बहुत कठिन विषयों में पड़ते हैं; उन सबकी तुलना में यह बहुत ही सरल है और अनन्त भवों के अनंत दु:खों को दूर करने का सफलतम साधन है। अत: इसकी उपेक्षा करना उचित नहीं है। __हाँ तो सुनो! अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य, एक-एक धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य एवं असंख्यात कालद्रव्य - ये सभी तो स्वाधीन हैं ही; एक आत्मद्रव्य में रहनेवाले अनन्तगुण-पर्यायें भी पूर्ण स्वाधीन हैं। आत्मा के अनन्त गुण एक-दूसरे के आधीन नहीं है। यद्यपि स्व-संवेदन के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता; क्योंकि जाने हुए का ही श्रद्धान होता है; तथापि इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि - श्रद्धा गुण ज्ञानगुण के आधीन है। वस्तुतः श्रद्धागुण का काम ज्ञानगुण नहीं करता, ज्ञानगुण तो मात्र जानने का ही काम करता है और श्रद्धागुण भी मात्र श्रद्धान करने का काम करता है। दोनों ही स्वतंत्ररूप से अपनाअपना काम करते हैं। कोई भी गुण किसी अन्य के आधीन नहीं है। भले ही दोनों गुणों का निर्मल कार्य एकसाथ एक ही समय में होता हुआ दिखाई देता है, तथापि कोई किसी के आधीन नहीं है। देखो न ! क्षायिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति में केवली या श्रुतकेवली की सहायता तो है ही नहीं: अन्तरंग में विद्यमान ज्ञान की भी सहायता नहीं; चारित्रगुण की भी सहायता नहीं ! अन्यथा एक ओर महामुनिराज को निर्मल चारित्रदशा होने पर भी क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं होता? इस बात से स्पष्ट है कि प्रत्येक गुण का स्वतंत्र परिणमन निज-निज
SR No.008365
Book TitlePar se Kuch bhi Sambandh Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size235 KB
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