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________________ पर से कुछ भी संबंध नहीं इनका ज्ञान व सुख की उत्पत्ति में कुछ भी योगदान नहीं है। ७० द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक निमित्त-उपादान प्रश्न ६१ : द्रव्यार्थिक निमित्त उपादान एवं पर्यायार्थिक निमित्तउपादान क्या है ? उत्तर : कविवर बनारसीदास के अनुसार निमित्तोपादान के दो भेद हैं - १. द्रव्यार्थिक निमित्त - उपादान २. पर्यायार्थिक निमित्त उपादान गुणभेद कल्पना परयोग कल्पना एक ही द्रव्य में गुणभेद करके उसमें उपादान निमित्त लागू करना द्रव्यार्थिक निमित्त - उपादान है। इसमें उपादान व निमित्त दोनों अपने आप में ही हैं। तथा भिन्न-भिन्न द्रव्यों के उपादान - निमित्त लागू करना पर्यायार्थिक निमित्त - उपादान है। इसमें उपादान 'स्व' है व निमित्त 'पर' होता है।" प्रश्न ६२ : एक ही अभेद द्रव्य में गुणभेद कल्पना कैसे संभव है ? उत्तर : वस्तुपने आत्मा में अनन्तगुण अभेद रूप होने पर भी उनमें भेद कल्पना से ज्ञान और चारित्र में उपादान - निमित्त घटाये जाते हैं इन १. निमित्तोपादान प्रवचन : पू. गुरुदेव श्री कानजी स्वामी द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक निमित्त उपादान ७१ दोनों गुणों की गति - न्यारी अर्थात् परिणमन भिन्न-भिन्न प्रकार का है, दोनों की शक्ति न्यारी अर्थात् दोनों के कार्य भिन्न-भिन्न हैं, दोनों की जाति न्यारी अर्थात् दोनों सम्यक्त्व व मिथ्या रूप से दो प्रकार दो प्रकार के होते हैं और दोनों की सत्ता न्यारी है। द्रव्य अपेक्षा सत्ता एक है; किन्तु गुण अपेक्षा से ये भिन्न-भिन्न हैं। इसप्रकार गति, जाति, शक्ति और सत्ता की अपेक्षा ज्ञान व चारित्र की भिन्नता बताकर उसमें निमित्त उपादान का व्यवहार घटित किया है, दोनों की स्वतंत्रता स्वीकार किए बिना उपादान - निमित्त का सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता। यद्यपि दोनों गुणों में प्रदेश भेद नहीं है, तथापि गुणभेद है। प्रश्न ६३ : उपादान व निमित्त दोनों को एक ही द्रव्य के आश्रित होना किसप्रकार संभव है ? उपादान व निमित्त तो दो पृथक् पृथक द्रव्यों में घटित होते हैं ? उत्तर : ज्ञान और चारित्र आदि गुणों की गति, शक्ति, जाति या सत्ता न्यारी न्यारी बताकर एक द्रव्य में भी निमित्त उपादान घटित हो जाते हैं। जिसप्रकार जगत में अनन्त जीव हैं, उसीप्रकार प्रत्येक जीव में अनन्त गुण हैं। सर्वगुण भी द्रव्यों की भाँति असहाय ही हैं। अनेक भिन्न-भिन्न द्रव्यों की भाँति ही एकद्रव्य के अनेक गुणों में भी ऐसी स्वाधीनता है कि वे परस्पर एकदूसरे की सहायता नहीं करते। एक क्षेत्रावगाही अनेक गुण दूसरे गुणों की सहायता बिना ही सदाकाल स्वाधीनपने परिणमन कर रहे हैं ऐसी प्रत्येक गुण की सहज शक्ति है। वस्तुपने जीव के अनन्त गुण अभेद होने पर भी उनमें से वहाँ गुणभेद कल्पना से ज्ञान व चारित्र गुण में निमित्त उपादान घटित करके विस्तार से बताते हैं । गति : ज्ञान की गति अर्थात् ज्ञान का परिणमन, ज्ञानरूप भी होता है।
SR No.008365
Book TitlePar se Kuch bhi Sambandh Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size235 KB
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