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________________ . कार्य-कारण सम्बन्ध : एक विश्लेषण सबको सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में निमित्त कहा है, सो वेदना तो सभी • नारकियों को हर समय है, सबको सम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता? क्षायिक सम्यक्तव केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में होता है, तो फिर समोशरण में स्थित जीवों को क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं होता 7 पर से कुछ भी संबंध नहीं पोग्गलकम्मकदाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।।८।। जीव के परिणाम के और पुद्गल के परिणाम के परस्पर मात्र निमित्तनैमित्तिकपना है तो भी परस्पर कर्ताकर्मभाव नहीं है। पर से निमित्त से जो अपने भाव हुए उनका कर्त्ता तो जीव को अज्ञान दशा में कदाचित् कह भी सकते हैं, परन्तु जीव पर भाव का कर्ता कदापि नहीं है।" प्रश्न ५१ : यदि ऐसा है तो फिर आगम में कर्मों को (निमित्त) कारण कहा ही क्यों है? उत्तर : इस लोक में कर्मों के साथ जीवों का एक ऐसा सहज निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि जब पुद्गल कर्म का उदय हो, तब जीव यदि अपना सम्यक् पुरुषार्थ न करे तो अपनी ही असावधानी के कारण स्वत: ही अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप स्वचतुष्टय से विकारी भावरूप परिणमित होता है। परन्तु उस विकार के अनुकूल होने से कर्म के उदय पर आरोप आता है कि कर्म के उदय से विकार हुआ है। ____ वस्तुत: कर्म के उदय से जीव की अवस्था विकारी नहीं होती। यदि कर्म के कारण विकार हो तब तो जीव को कभी मोक्ष होगा ही नहीं; व्योंकि संसार अवस्था में कर्म का उदय तो त्रिकाल विद्यमान रहता ही है। आत्मा अपने द्वारा कृत मोह-राग-द्वेष आदि विकारी भावों का कर्तृत्व कर्मों पर थोपकर दोषमुक्त नहीं हो सकता; किन्तु निमित्ताधीन दृष्टिवालों की वृत्ति स्व-दोष दर्शन की ओर न जाकर सदैव पर में दोषारोपण करने की ही होती है। यदि निमित्त पर में ( उपादान में ) कुछ भी करने में समर्थ हो तो अनेक ऐसे प्रश्न उपस्थित होंगे, जिनका समाधान करना भी संभव नहीं है। जैसे कि नरकों में जो वेदना, जातिस्मरणादि को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में निमित्त कहा है, सो वेदना तो सभी नारकियों को हर समय होती है, मंखलि गोसाल ६६ दिन तक भगवान महावीर के समोशरण में जैसे समर्थ निमित्त के सान्निध्य में रहा; फिर वह वहाँ से क्रुद्ध होकर क्यों चला गया? और गृहीत मिथ्यादृष्टि होकर मिथ्या मत का प्रचारक कैसे बन गया ? एक ओर सीताजी की अग्निपरीक्षा में समान्य शील के प्रभाव से अग्नि का जल हो गया और दूसरी ओर अठारह हजार प्रकार के शील का पालन करनेवाले भावलिंगी सन्तों ( पाँचों पाण्डवों ) के अग्निमय लोहपिण्ड ठंडे क्यों नहीं हुए ? वे ध्यान में रहते हुए भी क्यों जल गये? आदिनाथ भगवान जैसा समर्थ निमित्त पाकर भी मारीचि मिथ्यादृष्टि कैसे बना रहा ? वह क्यों नहीं सुलटा और आदिनाथ ने उसे क्यों नहीं समझ पाया? यदि उपर्युक्त सभी बातों पर शान्ति से विचार किया जाय, सहज कारणकार्य व्यवस्था को निमित्त-उपादान के संदर्भ में समझने का प्रयास किया जाय तो दृष्टि में निर्मलता आ सकती है, रागद्वेषोत्पादक निमित्ताधीन दृष्टि समाप्त होकर स्वावलम्बन द्वारा साम्यभाव जाग्रत हो सकता है। समयसार कलश में ५१ से५४ तक कार्य-कारण की अभिन्नता का स्पष्ट उल्लेख है। वहाँ कहा है कि - जहाँ व्याप्य-व्यापक भाव का सद्भाव होता है, वहीं कर्ता-कर्म संबंध बनता है, अत: परद्रव्यरूप निमित्त कार्य का कर्ता नहीं हो सकता।
SR No.008365
Book TitlePar se Kuch bhi Sambandh Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size235 KB
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