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________________ ३२ पर से कुछ भी संबंध नहीं उत्तर : देखो, यहाँ सूर्यकान्तमणि का उदाहरण देकर आत्मा के विकारी परिणमन की प्रक्रिया समझा रहे हैं। यद्यपि यह बात सच है कि सूर्यकान्तमणि स्वयं अपने आप अग्निरूप नहीं परिणमता, उसके अग्निरूप परिणमन में सूर्य का बिम्ब निमित्तभूत है; तथापि सूर्यकान्त मणि स्वयं की तत्समय की उपादान की योग्यता के बिना मात्र सूर्य के निमित्त कारण से अग्निमय नहीं होता। सूर्य सूर्यकान्तमणि को अग्निमय करने का कर्त्ता नहीं, फिर भी निमित्त तो है ही। निमित्त का निषेध नहीं बल्कि निमित्त के कर्तृत्व मात्र का निषेध है। यदि अकेले सूर्यरूप निमित्त को ही अग्नि का उत्पादक माना जायेगा तो अन्य साधारण पत्थर में भी सूर्य से अग्नि उत्पन्न होने का प्रसंग प्राप्त होगा, जो संभव नहीं है तथा यदि निमित्त का सर्वथा निषेध करें तो रात्रि में भी सूर्य के बिना ही सूर्यकान्तमणि में अग्नि उत्पन्न होने का प्रसंग प्राप्त होगा। अत: सूर्य के निमित्तपने से भी इन्कार नहीं और सूर्य का निमित्त रूप सूर्यकान्तमणि में अग्नि उत्पन्न करने कर्त्ता भी नहीं; मात्र दोनों का निमित्त चैमित्तिक सम्बन्ध कुत्कर्म सम्बन्ध नहीं है। २. विशेषत्ती, कास्तिकवि सूर्यकान्तज्वस्पिाचार्येक्षनिस्टॉकहोता है, वह अपी इससमय की पर्यायगतयोग्यता से होता हेओरसूर्य जिम्ब उसमें निमित्तला होता निमित्तोम्मेंस्कर्तृत्वा के भ्रमकोक्कोणावत विवौरणि अन्य व्याये अन्अनुकूल से यणा वदाथापकी कहीं वीत्तक समेयी अमिवसे या सिद्धपस्थिलिहानोतएव कियाडमिकलहोने सलेक्झाओगेममधहो 'कारण संज्ञा प्राप्त होने से साधारणजन भ्रमित हो जाते हैं; परन्तु वे । सदीमा पेंदाधीकार्य कपअनुरूप दियकीयरूवहाँ वधारैणमित न होने संका महीं सालमहाहिए कितै परदहा जीवको ग्यापिरिणमति सते कैतीयोंकि अन्अत्यमितामहीमहाहव्योंहिएगणों को उत्पन्न करने की अयोग्यता है। क्योंकि सर्वद्रव्यों का स्वभाव से ही उत्पाद होता है। प्रश्न ३४ : देह और पाँचों इन्द्रियों के विषयों के निकट रहने से ही मनुष्यों को ज्ञान और सुख होता है, इसलिए वे देहादि ज्ञान और सुख के अकिंचित्कर कैसे हो सकते हैं? उत्तर : उपादान कारण के आश्रय से (सामर्थ्य) ही निमित्त को हेतु कहा जाता है उपादान के बिना पर को कार्य का निमित्त नहीं कहा जा सकता है। जैसे अग्नि चन्दन के गन्ध की व्यंजक होती है, परन्तु चन्दन के बिना वह गन्ध उस अग्नि की नहीं हो सकती। इसीप्रकार देह, इन्द्रिय और इन्द्रियों के विषय पर के ज्ञान और सुख के मात्र अभिव्यंजक होते हैं; परन्तु ये स्वयं ज्ञान और सुखरूप नहीं हैं। अत: ज्ञान व सुखरूप होने में ये इन्द्रियाँ आदि अकिंचित्कर ही हैं। दूसरे उपादान शून्य वस्तु में केवल अभिव्यंजक मात्र से ज्ञान और सुख नहीं हो सकते; अन्यथा वहाँ और सर्वत्र हेतु शून्य दोष का प्रसंग प्राप्त होगा। इसलिए यह बात सिद्ध है कि ज्ञान और सुख जीव के गुण हैं; क्योंकि इन गुणों का संसार ओर मुक्त दोनों ही अवस्था में अतिक्रमण नहीं पाया जाता।' प्रश्न ३५ : जब कर्मों का तीव्र उदय होता है, तब पुरुषार्थ नहीं हो सकता । ११ वें गुणस्थान से भी जीव नीचे गिर जाता है। आगम में इस कथन का क्या अर्थ है? उत्तर : जब जीव स्वयं अपने विपरीत पुरुषार्थ से बड़ा दोष करता है, राग-द्वेषरूप परिणमता है, उस कर्म के उदय को तीव्र उदय कहते हैं: क्योंकि यदि जीव सम्यक् पुरुषार्थ करे तो कर्म कैसा भी उदय में हो, उसे निर्जरा कहा जात है। कर्मोदय के कारण जीव गिरता नहीं है. अन्यथा जीव को मोक्ष का अभाव हो जायेगा। प्रवचनसार गाथा ४५ की टीका में श्री जयसेनाचार्य कहते हैं कि - षटखण्डागम धवला पुस्तक ६, सूत्र - ४, ७, १०, १३, १९, पृष्ठ १६४
SR No.008365
Book TitlePar se Kuch bhi Sambandh Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size235 KB
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