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________________ पर से कुछ भी संबंध नहीं जाता है या निमित्तों की सत्ता से ही इन्कार किया जाने लगता है। • छठवें, इनके यथार्थ ज्ञान बिना वस्तुस्वातंत्र्य का सिद्धान्त एवं कार्य-कारण की स्वतंत्रता समझना सम्भव नहीं है। अत: इनका ज्ञान करम आवश्यक है। • प्रश्न ३: मोक्षमार्ग में इनके ज्ञान की उपयोगिता क्या है ? इनके समझने बे धर्म संबंधी लाभ क्या है ? उत्तर : निमित्तोपादान की यथार्थ समझ से तथा पर पदार्थों के कर्तृत्व के अहंकार से उत्पन्न होनेवाला कषायचक्र सीमित हो जाता है , समता का भाव जाग्रत होता है। उदाहरणार्थ - मैं परजीवों का भला कर सकता हूँ - इस मान्यता से या ऐसी श्रद्धा से अहंकार उत्पन्न होता है। मैं पर को हानि पहुँचा सकता हूँ- ऐसी श्रद्धा से क्रोध भभकता कार्य-कारण स्वरूप एवं संबंध के लिए कैसी श्रद्धा होना परमावश्यक है ? उत्तर : आत्मा के सुख-दुःख में, हानि-लाभ या उत्थान-पतन में निमित्तरूप परद्रव्य का किंचित् भी कर्तृत्व नहीं है तथा मेरा हिताहित दूसरे के हाथ में रंचमात्र भी नहीं है। ऐसी श्रद्धा के बिना स्वोन्मुखता संभव नहीं है तथा स्वोन्मुख हुए बिना आत्मानुभूति होना संभव नहीं है, जो कि सम्यग्दर्शन की अनिवार्य आवश्यकता है; क्योंकि आत्मानुभूति के बिना तो मोक्षमार्ग का शुभारंभ ही नहीं होता। निमित्तोपादान के समझने से परपदार्थ के परिणमन में फेर-फार करने की जो अपनी अनादिकालीन विपरीत मान्यता है, उसका नाश तो होता ही है; अपनी पर्याय पलटने की, उसे आगे-पीछे करने की आकुलता भी समाप्त हो जाती है। निमितोपादान का स्वरूप समझने से दृष्टि निमित्तों पर से हटकर त्रिकाली उपादानरूप निज स्वभाव की ओर ढलती है, जो अपने देह-देवालय में विराजमान स्वयं कारण परमात्मा है। ऐसे कारण परमात्मा की ओर ढलती हुई दृष्टि ही आत्मानुभूति की पूर्वप्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से पार होती हुई अपनी ज्ञानपर्याय जब पर और पर्याय से पृथक् त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा को ज्ञेय बनाती है, तभी आत्मानुभूति प्रगट हो जाती है। इसे ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन ही मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी है; सुख-शान्ति प्राप्त करने का अमोघ-उपाय है।। इसप्रकार आध्यात्मिक सुख-शान्ति का मूल उपाय निमित्तोपादान सम्बन्धी सच्ची समझ ही है। न केवल आत्मिक; बल्कि लौकिक, सुखशान्ति का उपाय भी यही है। प्रश्न ५:आत्मा में सम्यग्दर्शन (कार्य) निष्पन्न होने की प्रक्रिया क्या है ? पर मेरा भला कर सकता है - ऐसी मान्यता से दीनता/हीनता आती है। पर मेरा बुरा कर सकता है - ऐसी मान्यता से व्यक्ति भयाक्रान्त हो जाता है। इसके विपरीत से इनकी यथार्थ समझ से निमित्तरूप पराश्रय के भावों से उत्पन्न दीनता/हीनता का अभाव होता है, क्रोधादि विभाव भावों की उत्पत्ति नहीं होती, स्वतन्त्रता/स्वाधीनता का भाव जाग्रत होता है तथा पर पदार्थों के सहयोग की आकांक्षा से होनेवाली व्यग्रता का अभाव होकर सहजस्वाभाविक शान्तदशा प्रगट होती है। प्रश्न ४ : परोन्मुखता समाप्त करने के लिए एवं स्वोन्मुखता प्राप्त करने १.(समयसार गाथा १३०-१३१ की टीका) २.(समयसार गाथा ६८ की टीका)
SR No.008365
Book TitlePar se Kuch bhi Sambandh Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size235 KB
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