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________________ पंच परमेष्ठी शरीर की स्थिरता के लिए आहार लेते हैं। शरीर की स्थिरता से परिणामों की स्थिरता होती है और मुनिराज को परिणाम बिगड़ने-सुधरने का उपाय ही निरन्तर रहता है । जिस बात से राग-द्वेष न उपजे, उस क्रियारूप प्रवर्तते हैं, अन्य कुछ प्रयोजन नहीं है। नवधा भक्ति - ऐसे शुद्धोपयोगी मुनिराज को गृहस्थ, दातार के सात गुणों से संयुक्त होकर, नवधाभक्तिपूर्वक आहार देते हैं, वही कहते हैं - (१) प्रतिग्रहण - अर्थात् प्रथम तो मुनिराज को पड़गाहे, पश्चात् (२) उच्चस्थापन अर्थात् मुनि को उच्च स्थान पर स्थापित करे। प्रक्षालन करे, उससे हुए (३) पादोदक - अर्थात् मुनिराज के पदकमल/चरणों का गन्धोदक अपने मस्तकादि उत्तम अंग में कर्म के नाश के लिए लगाये और अपने को धन्य एवं कृतकृत्य माने, पश्चात् (४) अर्चन - अर्थात् मुनिराज की पूजा करे, पश्चात् (५) प्रणमन - अर्थात् मुनिराज के चरणों को नमस्कार करे, पश्चात् (६) मनशुद्धिअर्थात् मन प्रफुल्लित कर महा हर्षायमान हो, पश्चात्(७) वचनशुद्धि - अर्थात् मीठे-मीठे वचन बोले (८) कायशुद्धि - अर्थात् विनयवान होकर शरीर के अंग-उपांगों को नम्रीभूत करे, पश्चात् (९) एषणाशुद्धि - अर्थात् दोषरहित शुद्ध आहार देवे - इसप्रकार नवधाभक्ति का स्वरूप जानना। आगे दातार के सात गुण कहते हैं - (१) श्रद्धावान, भक्तिमान, शक्तिमान, विज्ञानवान और शांतियुक्त हो (२) मुनिराज को आहार देकर लौकिक फल की वांछा न करे (३) क्षमावान हो (४) कपटरहित हो (५) अधिक सयाना (सयानापन दिखानेवाला) न हो (६) विषादरहित हो, हर्षसंयुक्त हो (७) अहंकाररहित हो - ऐसे सात गुणसहित दातार जानना। साधु का स्वरूप ऐसा दातार स्वर्गादि के सुख भोगकर परम्परा से मोक्षस्थान तक पहुँचता है - ऐसे शुद्धोपयोगी मुनिराज तरण-तारण हैं। आचार्य, उपाध्याय, साधु - उनके चरण कमल में मेरा नमस्कार हो। हे मुनिराज ! आप कल्याण के कर्ता हो, भवसागर में गिरते हुए जीवों की रक्षा करो। इसप्रकार मुनिराज के स्वरूप का वर्णन किया। हे भव्य ! यदि तुम अपना हित चाहते हो तो सदैव ऐसे गुरु के चरणारविन्द की सेवा करो और अन्य का सेवन दूर से ही छोड़ दो। इसप्रकार आचार्य, उपाध्याय और साधु - इन तीन प्रकार के गुरुओं का वर्णन किया। तीनों ही शुद्धोपयोगी हैं; इसलिए समानता है, विशेषता नहीं। इसप्रकार गुरु की स्तुति करके एवं नमस्कार करके उनके गुणों का वर्णन किया। जिन्होंने राजलक्ष्मी को छोड़कर मोक्ष के लिए दीक्षा धारण की है तथा जिनको अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियाँ प्रकट हुई हैं और जो मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यज्ञान से संयुक्त हैं; महा दुर्धर तप से संयुक्त हैं; नि:कषाय हैं, छियालीस दोष टालकर आहार लेते हैं। अट्ठाईस मुलगुणों में अतिचार भी नहीं लगाते हैं। ईयासमिति को पालते हुए साढ़े तीन हाथ पृथ्वी शोधते हुए विहार करते हैं। भाव यह है कि किसी भी जीव की विराधना नहीं चाहते हैं। भाषासमिति से हित-मित-प्रिय वचन बोलते हैं। उनके वचन से कोई जीव दुःख नहीं पाता है। इसप्रकार सर्व जीवों के दयालु जगत में गुरु शोभायमान होते हैं - ऐसे सर्वोत्कृष्ट देव, गुरु, धर्म - इनको छोड़कर जो विचक्षण पुरुष हैं, वे कुदेवादि को कैसे पूजें (कैसे पूज सकते हैं)? प्रत्यक्ष ही जगत में जिनकी हीनता दिखाई देती है, जगत में जितने भी राग-द्वेष आदि अवगुण हैं, वे सब कुदेवादि में पाए जाते हैं। उनका
SR No.008363
Book TitlePanch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size215 KB
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