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________________ पंच परमेष्ठी नहीं ? हाय ! हाय ! अब मैं क्या करूँ ? यह मेरा स्वभाव है क्या ? मेरा स्वभाव तो एक निराकुलित, बाधारहित, अतीन्द्रिय, अनुपम स्वरस पीने का है; अत: वही मुझे प्राप्त हो। जैसे समुद्र में मग्न हुआ मच्छ बाहर निकलना नहीं चाहता तथा बाहर निकलने में समर्थ भी नहीं है; वैसे ही मैं ज्ञानसमुद्र में डूबकर फिर नहीं निकलना चाहता । एक ज्ञानरस को ही पिया करूँ, आत्मिकरस बिना और किसी में रस है ही नहीं। सारे जग की सामग्री चेतनारस के बिना जडस्वभाव धारण करनेवाली फीकी है। जैसे लवण बिना अलोनी रोटी फीकी है। उसीप्रकार ऐसा कौन ज्ञानी पुरुष है, जो ज्ञानामृत को छोड़, औपाधिक आकुलतासहित दु:खरूप आचरण करे ? कभी भी ऐसा आचरण नहीं करते । ऐसे शुद्धोपयोगी महामुनि ज्ञानरस के लोभी और आत्मिकरस के स्वादी निजस्वभाव से छूटते समय इस भाँति खेदखिन्न होते हैं। वे महामुनि ध्यान ही धारण करते हैं, उनका ध्यान देखकर ऐसा लगता है मानो वे केवली भगवान एवं प्रतिमा की होड़ करते हैं। वे ऐसा चिन्तन करते हैं। हे भगवन् ! आपके प्रसाद से मैंने भी निज स्वरूप को पाया है, अत: इसीसमय मैंने निजस्वरूपका ही ध्यान किया है। आपका ध्यान नहीं किया। आपके ध्यान में मुझे निजस्वरूप का ही ध्यान करते हुए विशेष आनन्द/अतीन्द्रिय-आनन्द होता है। मुझे अनुभवपूर्वक प्रतीति है और आगम में आपने भी ऐसा ही उपदेश दिया है। वीतराग एवं सर्वज्ञता को नमस्कार - “हे भव्यजीवो ! कुदेवों की पूजा से अनन्त संसार में भ्रमण करोगे तथा नरकादि के दुःख सहोगे साधु का स्वरूप और वीतराग-सर्वज्ञ भगवान को पूजने से स्वर्गादि के मन्द क्लेश सहन करोगे। निजस्वरूप में रहोगे तो नियम से मोक्ष पाओगे।" इसलिए हे भगवन् ! मैंने आपके ऐसे उपदेश से वीतराग सर्वज्ञ भगवान को जाना तथा जो वीतराग सर्वज्ञ हैं, वे ही सर्वप्रकार से जगत में पूज्य हैं। इसप्रकार वीतराग सर्वज्ञ भगवान को जानकर, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। सर्वज्ञता के बिना तो सर्व पदार्थों का स्वरूप ही नहीं जाना जा सकता - वीतरागता के बिना, राग-द्वेष को वश में करके यथार्थ उपदेश नहीं दिया जा सकता । अन्य स्थानों में या तो अपनी सर्वप्रकार निन्दा का ही उपेदश है अथवा सर्वप्रकार से अपनी बढ़ाई और महन्तता का ही उपेदश है। ऐसे ये लक्षण भलीभाँति कुदेव आदि में सम्भवित हैं। ___इसलिए हे भगवन् ! मैं इन कुदेवादि के लक्षणों से रहित हूँ, इसलिए मेरे स्वरूप की बढ़ाई करता हूँ; अत: मुझे दोष नहीं, एक राग-द्वेष का ही दोष है। मेरा वह राग-द्वेष आपके प्रसाद से विलीन हो गया है। इन शुद्धोपयोगी महामुनि के राग और द्वेष में समानता है, इनके लिए असत्कार और सत्कार समान हैं, इनकी दृष्टि में रत्न और कौड़ी समान हैं, इनके लिए उपसर्ग-अनुपसर्ग समान हैं तथा जिनके लिए मित्र-शत्रु समान हैं। वे समान कैसे हैं ? वही कहते हैं - पूर्व से ही तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, कामदेव, विद्याधर, बड़े मण्डलेश्वर, मुकुटबद्ध राजा इत्यादि मोक्षलक्ष्मी के लिए संसार, देह और भोगों से विरक्त होकर, राजलक्ष्मी को तुच्छ तृण की भाँति छोड़कर, संसारबन्धन को हाथी की भाँति तोड़कर, वन में जाकर दीक्षा धारण करते हैं। निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुद्रा का आदर करते हैं। उसके बाद परिणामों के माहात्म्य से उनको नानाप्रकार की ऋद्धियाँ स्फुरित होती हैं।
SR No.008363
Book TitlePanch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size215 KB
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