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________________ ४० पंच परमेष्ठी ऐसे सिद्ध भगवान को नमस्कार हो, ऐसे सिद्ध भगवान जयवन्त प्रवर्तो । मुझे संसार-समुद्र से निकालो तथा संसार-समुद्र में गिरने से बचाओ। मेरे अष्ट कर्म का नाश करो । मेरे कल्याण के कर्ता होकर मुझे मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति करा दो। मेरे हृदय में निरन्तर निवास करो और मुझे अपने समान करो। सिद्ध भगवान कैसे हैं ? जिनके जन्म-मरण नहीं, जिनके शरीर नहीं है, जिनके विनाश नहीं है, संसार में गमन नहीं है; जिनके असंख्यात प्रदेशों में ज्ञान का आधार है जो अनन्तशुणों की खान हैं एवं अनन्त गुणों से पूर्ण भरे हैं, इ सिदों का स्वरूपो स्थान ही नहीं हैइसप्रकार सिङ्गल पस्केष्टीवली यति कास्कर सति की त्यागकर, मुनिधसकारासिझरकास्किकाफसमापूर्णहानी अनंतचतुष्टयरूप भाव प्रगट करके, कुछ काल पीछे चार अघातिकर्मों के भी भस्म होने पर परम औदारिक शरीर को भी छोड़कर ऊर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के अग्रभाग में जाकर विराजमान हए; वहाँ जिनको समस्त परद्रव्यों का सम्बन्ध छटने से मुक्त अवस्था की सिद्धि हुई तथा जिनके चरम शरीर से किंचित् न्यून पुरुषाकारवत् आत्मप्रदेशों का आकार अवस्थित हआ तथा जिनके प्रतिपक्षी कर्मों का नाश हआ इसलिए समस्त सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शनादिक आत्मिक गुण सम्पूर्णतया अपने स्वभाव को प्राप्त हए हैं तथा जिनके नोकर्म का सम्बन्ध दूर हुआ इसलिए समस्त अमूर्तत्वादिक आत्मिक धर्म प्रगट हुए हैं, तथा जिनके भावकर्म का अभाव हुआ इसलिए निराकुल आनन्दमय शुद्धस्वभावरूप परिणमन हो रहा है तथा जिनके ध्यान द्वारा भव्य जीवों को स्वद्रव्य-परद्रव्य का और औपाधिकभाव-स्वभावभावों का विज्ञान होता है, जिसके द्वारा उन सिद्धों के समान स्वयं होने का साधन होता है। इसलिए साधने योग्य जो अपना शुद्धस्वरूप उसे दर्शाने को प्रतिबिम्ब समान हैं तथा जो कृतकत्य हुए हैं इसलिए ऐसे ही अनंतकाल पर्यन्त रहते हैं। ऐसे निष्पन्न हुए सिद्धभगवान को हमारा नमस्कार हो। मोक्षमार्गप्रकाशक : पहला अधिकार, पृष्ठ - २ साधु का स्वरूप अब साधुका स्वरूप कहते हैं अत: हे भव्य ! तुम सावधान होकर भलीभाँति सुनो! निर्ग्रन्थ गुरु कैसे हैं ? जिनका चित्त दयालु है, जिनका स्वभाव वीतरागी है और जो प्रभुत्व शक्ति से विभूषित हैं; हेय, ज्ञेय, उपादेय - ऐसे विचार से संयुक्त हैं तथा निर्विकार महिमा को प्राप्त हुए हैं। __ जैसे नग्न राजपुत्र बालक, निर्विकार शोभा को प्राप्त होता है तथा सभी मनुष्यों और स्त्रियों को प्रिय लगता है। मनुष्य और स्त्रियाँ उसका रूप देखना चाहती हैं। स्त्रियाँ उसका आलिंगन करती हैं; परन्तु उनका परिणाम निर्विकार ही रहता है, सरागता आदि को प्राप्त नहीं होता है। वैसे ही जिनलिंग के धारक महामुनि बालकवत् निर्विकार शोभित होते हैं, सभी को प्रिय लगते हैं; सभी स्त्रियाँ और पुरुष मुनि का रूप देख-देखकर भी तृप्त नहीं होते हैं अथवा ऐसा लगता है कि वे मुनि निर्ग्रन्थ ही नहीं हुए हैं, वरन् अपने निर्विकारादि गुणों को ही प्रकट करते हैं। शुद्धोपयोगी मुनि का स्वरूप - वे मुनि ध्यानारूढ़ हैं, आत्मस्वभाव में स्थित हैं। ध्यान बिना क्षणमात्र भी नहीं गँवाते हैं। नासाग्र दृष्टि कर अपने स्वरूप को हीदेखते हैं। जिसप्रकार गाय बछड़े को देख-देखकर भी तृप्त नहीं होती, निरन्तर गाय के हृदय में बछड़ा बसता है; उसीप्रकार शुद्धोपयोगी मुनि अपने स्वरूप को क्षणमात्र भी बिसरते/भूलते नहीं हैं। गौ-वत्स के समान निज स्वभाव से वात्सल्य करते हैं अथवा अनादिकाल से अपना स्वरूप खो गया है, उसे ढूँढते हैं अथवा ध्यानाग्नि में कर्म ईन्धन को अभ्यन्तर होकर गुप्तरूप से होम करते हैं
SR No.008363
Book TitlePanch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size215 KB
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