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________________ पंच परमेष्ठी ३६ दिशा, प्रकाश तथा बिम्ब कैसा होता है ?” पुनः उससे प्रश्न करें - तब वह कुछ का कुछ बताता है। पश्चात् पौ फटने पर, पुन: उससे प्रश्न करें, तब वह यह कहता है - “जहाँ से प्रकाश हुआ है, वही पूर्व दिशा है और वहीं सूर्य है; क्योंकि सूर्य के बिना ऐसा प्रकाश नहीं होता। जैसे-जैसे सूर्य ऊँचा चढ़ता है, वैसे-वैसे सूर्य का प्रकाश प्रत्यक्ष और निर्मल होता जाता है तथा पदार्थ भी निर्मल प्रतिभासित होने लगते हैं।" फिर कोई आकर उससे यह कहे कि सूर्य दक्षिण दिशा में है, तो वह कदापि नहीं मानता; ऐसा कहने वाले को पागल मानता है कि यह तो सूर्य का प्रकाश प्रत्यक्ष पूर्व दिशा में दिखता है, मैं इसका कथन कैसे मानूँ ? यह मुझे नि:सन्देह है, सूर्य का बिम्ब तो मुझे दृष्टिगत नहीं होता; • किन्तु प्रकाश से सूर्य का अस्तित्व सिद्ध है; इसलिए नियम से सूर्य यहाँ ही है - इस भाँति अवगाढ़ प्रतीति आती है। किञ्चित् काल पश्चात् जब सूर्य का बिम्ब सम्पूर्ण महातेजयुक्त प्रताप को लेकर दैदीप्यमान प्रकट हुआ, तब प्रकाश भी सम्पूर्णरूप से प्रकट हुआ। पदार्थ भी जैसे थे, वैसे ही प्रतिभासित होने लगे; तब और कुछ पूछना नहीं रहा, निर्विकल्प हो गया। इसप्रकार दृष्टान्त के अनुसार दान्त जानना । वही कहते हैं - मिथ्यात्व-अवस्था में इस पुरुष से कहें कि तुम चैतन्य हो, ज्ञानमयी हो; तो वह कहता है- “चैतन्य-ज्ञान क्या कहलाता है ? क्या मैं चैतन्यज्ञान हूँ ?” फिर कोई आकर ऐसा कहता है- “शरीर है, वही तुम हो; तुम सर्वज्ञ का एक अंश हो क्षण में उत्पन्न होते हो और क्षण में विनष्ट होते हो तथा तुम शून्य हो" - तब वह ऐसा मानता है कि मैं ऐसा ही होऊँगा, मुझे कुछ खबर नहीं पड़ती- यह बहिरात्मा का लक्षण है। सिद्ध का स्वरूप तब कोई पुरुष गुरु का उपदेश पाकर कहता है - “प्रभु ! शून्य आत्मा के कर्म कैसे बँधते हैं ?” तब श्रीगुरु कहते हैं - "जैसे एक सिंह उजाड़ / निर्जन स्थान / वनखण्ड में बैठा था । वहाँ ही वन में सभा में आठ मन्त्रवादी थे। उस सिंह ने उन मन्त्रवादियों के ऊपर कोप किया, तो उन मन्त्रवादियों ने एक-एक चुटकी भर धूल मन्त्रित कर सिंह के शरीर पर डाल दी।" ३७ “कितने ही दिनों के पश्चात् एक चुटकी धूल के निमित्त से सिंह का ज्ञान कम हो गया। एक चुटकी धूल के निमित्त से देखने की शक्ति घट गई। एक चुटकी धूल के निमित्त से सिंह दुःखी हुआ। एक चुटकी धूल के निमित्त से सिंह उस शून्य स्थान को छोड़कर अन्य स्थान को चला गया। एक चुटकी धूल के निमित्त से सिंह का आकार अन्यरूप ही हो गया। एक चुटकी धूल के निमित्त से सिंह अपने को नीचरूप मानने लगा तथा एक चुटकी धूल के निमित्त से उसके ज्ञानादि की शक्ति सामर्थ्य घट गई । " इसीप्रकार आठ प्रकार के ज्ञानावरणादि कर्म जीवों में राग-द्वेष उत्पन्न कर ज्ञानादि आठ गुणों का घात करते हैं ऐसा जानना । इसप्रकार शिष्य ने प्रश्न किया था, उसका गुरु ने उत्तर दिया। अतः भव्यजीवों को सिद्ध के स्वरूप को जानकर अपने स्वरूप में लीन होना उचित है। सिद्ध के स्वरूप में और अपने स्वरूप में सादृश्य है, इसलिए सिद्ध के स्वरूप का ध्यान कर निजस्वरूप का ध्यान करना । अधिक कहने से क्या ? ऐसा ज्ञानी अपने स्वभाव को जानता है । सिद्धदेव की स्तुति अब श्री सिद्ध परमेष्ठी की स्तुति अर्थात् महिमा का वर्णन कर मैं अष्ट कर्मों का नाश करूँगा । परम देव सिद्ध का स्वरूप- जिन्होंने घातिया, अघातिया
SR No.008363
Book TitlePanch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size215 KB
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