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________________ सिद्ध का स्वरूप पंच परमेष्ठी है, तब उस इन्द्रिय के अनुसार पदार्थ को देखता है। मन के द्वार से अवलोकन करता है, तब मूर्तिक एवं अमूर्तिक सर्व पदार्थ प्रतिभासित होते हैं। जब यह आत्मा शरीररूपी बन्दीखाने से रहित होता है, तब मूर्तिक और अमूर्तिक, लोकालोक के त्रिकाल सम्बन्धी चराचर पदार्थ एक समय में युगपतप्रतिभासित होते हैं। यह स्वभाव आत्मा का है, शरीर का तो नहीं है। शरीर के निमित्त से पूरा ज्ञान घटता जाता है अर्थात् अप्रकटरूप रहता है और इन्द्रियों तथा मन के निमित्त से किंचित् मात्र ज्ञान खुला/ प्रकट रहता है। इसप्रकार के निर्मल जाति के परमाणु इन्द्रियों एवं मन में लगे हैं, उनसे किंचित् मात्र दिखता है/जानना होता है। दूसरी बात यह है कि शरीर का स्वभाव तो इतने ज्ञान को भी घातने/ढकने का ही है। जिसने निज आत्मा का स्वरूप जाना है, उसका यह चिह्न होता है। अन्य गुण तो आत्मा में अनेक हैं और अधिक ही जाने जाते हैं; किन्तु तीन गुण विशेष हैं, उनको जाने तो अपना स्वरूप अवश्य जानता है और उनके जाने बिना त्रिकाल में भी निजस्वरूप की प्राप्ति नहीं होती । तीन गुणों में से दो को ही भलीभाँति जाने तो भी निज सहजानन्द को पहचाने । दो गुणों की पहचान बिना स्वरूप की प्राप्ति त्रिकाल, त्रिलोक में नहीं होती । वही कहते हैं - गुणों की पहचान और स्वरूप की प्राप्ति - पहला गुण - प्रथम तो आत्मा का स्वरूप ज्ञाता-दृष्टा जाने । यह जानपना है, वह ही मैं हूँ और मैं हूँ, वही जानपना है - ऐसा निःसन्देह अनुभवन में आए। ___ दूसरा गुण - राग-द्वेषरूप व्याकुल होकर परिणमन करता है, वह ही मैं हूँ, कर्म का निमित्त पाकर कषायरूप परिणमन हुआ है। जब कर्म का निमित्त अल्प पड़े, उदय मन्द हो; तब परिणाम शान्तरूप परिणमन करते हैं। जैसे जल का स्वभाव तो शीतल एवं निर्मल है, अग्नि का निमित्त पाकर वह जल उष्णतारूप परिणमन करता है और धूल/रज का निमित्त पाकर वह जल मलिनतारूप परिणमन करता है; वैसे ही इस आत्मा का ज्ञानावरणादि कर्म के उदय का निमित्त होने पर ज्ञान घाता जाता है और कषायों के उदय का निमित्त पाकर निराकुलता का गुण घाता जाता है। __ जैसे-जैसे ज्ञानावरणादि कर्म का उदयरूप निमित्त हलका/मन्द पड़ता है, वैसे-वैसे ज्ञान का उद्योत होता है और जैसे-जैसे कषाय का निमित्त मन्द पड़ता जाता है, वैसे-वैसे निराकुलित परिणाम होते जाते हैं। इस स्वभाव को जिन्होंने प्रत्यक्ष जाना और अनुभव किया है. वे ही सम्यग्दृष्टि निजस्वरूप के भोक्ता हैं। तीसरा गुण - यह भी जानते हैं कि मैं असंख्यातप्रदेशी अमूर्तिक आकारवाला हूँ। जैसे आकाश अमूर्तिक है, वैसे ही मैं भी अमूर्तिक हूँ; किन्तु आकाश तो जड़ है और मैं चैतन्य हूँ। आकाश का स्वरूप - आकाश काटे से कटता नहीं, तोड़ने से टूटता नहीं, पकड़ने में आता नहीं, रोकने से रुकता नहीं, छेदने से छिदता नहीं, भेदने से भिदता नहीं, गलाने से गलता नहीं, जलाने से जलता नहीं - इनको आदि लेकर किसीप्रकार भी आकाश का नाश नहीं होता है, इसीप्रकार मेरे असंख्यातप्रदेशों का नाश नहीं होता। (१) मैं असंख्यातप्रदेशी प्रत्यक्ष वस्तु हूँ। (२) मेरा ज्ञान गुण तथा (३) परिणति गुण प्रदेशों के सहारे हैं। यदि प्रदेश न हों तो गुण किसके आश्रित रहें ? जब प्रदेश बिना गुणों की नास्ति हो, तब स्वभाव की नास्ति हो। जैसे आकाश के फूल कोई वस्तु नहीं, वैसे ही हो जाएँगेऐसा मैं नहीं हूँ।
SR No.008363
Book TitlePanch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size215 KB
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