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________________ पदार्थ विज्ञान कभी शान्ति नहीं होती। जहाँ, प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वभाव वाली है - ऐसा जाना वहाँ वस्तु के भिन्नत्व की बाड़ बन्ध गई। मेरे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य में पर का अभाव है और पर के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य में मेरा अभाव है, मेरे द्रव्य-गुण-पर्याय में मैं और पर के द्रव्य-गुण-पर्याय में पर - ऐसा निश्चित करने से पर के द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वामित्व छोड़कर स्वयं अपने द्रव्यगुण-पर्याय का रक्षक हुआ। स्व-द्रव्योन्मुख होने से स्वयं अपने द्रव्यगुण-पर्याय का रक्षक हुआ अर्थात् ध्रौव्य द्रव्य के आश्रय से निर्मल पर्याय का उत्पाद होने लगा, वही धर्म है। पहले, ‘पर को मैं बदल दूं' - ऐसा मानता था तब पराश्रयबुद्धि से विकारभावों की ही उत्पत्ति होती थी और अपने द्रव्य-गुण-पर्याय की रक्षा नहीं करता था, इसलिये वह अधर्म था। ___ आचार्य भगवान ने इस गाथा में सत् को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त बतलाकर अद्भुत बात की है। यह बात वर्तमान समय के परिणाम की है, क्योंकि सम्पूर्ण द्रव्य वर्तमान परिणाम में साथ ही वर्त रहा है। आशय यह है कि परिणाम और द्रव्य दोनों साथ ही हैं। द्रव्य कभी भी परिणाम से रहित नहीं होता, परिणाम कभी भी द्रव्य से रहित नहीं होता। परिणाम वर्तमान में हो और द्रव्य गतकाल में रह जाये - ऐसा नहीं होता तथा द्रव्य है, किन्तु परिणाम नहीं है - ऐसा भी नहीं होता। इसलिये परिणाम और द्रव्य दोनों वर्तमान में साथ ही है - ऐसा समझना । द्रव्य में अपने स्वकाल में सदैव वर्तमान परिणाम होते हैं, जब देखो तब द्रव्य अपने वर्तमान परिणाम में ही वर्त रहा है, ऐसे वर्तमान में प्रवर्तमान द्रव्य की प्रतीति सो वीतरागता का मूल है। “परिणाम का स्व-अवसर" ऐसा जो कहा वहाँ परिणाम का जो वर्तन है, वही उसका अवसर है उस समय वही परिणाम वर्तता है, उस परिणाम में वर्तता हुआ, द्रव्य उत्पादरूप है, उससे पूर्व के परिणाम में द्रव्य नहीं वर्तता इससे वह व्ययरूप है और सर्वत्र अखण्डपने की अपेक्षा प्रवचनसार-गाथा ९९ ४३ से द्रव्य ध्रौव्य है। इसप्रकार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप त्रिलक्षणपना सिद्ध होता है। जीव और अजीव समस्त द्रव्य और उनके अनादि-अनन्त परिणाम सत् हैं, वह सत् स्वयंसिद्ध है, उसका कोई दूसरा रचयिता या परिणमन करानेवाला नहीं है । जिसप्रकार कोई द्रव्य अपना स्वरूप छोड़कर अन्यरूप नहीं होता, उसीप्रकार द्रव्य का कोई परिणाम भी आगे-पीछे नहीं होता। द्रव्य में अपने-अपने स्वकाल में परिणाम उत्पन्न होते हैं, पूर्व के परिणाम उत्पन्न नहीं होते और द्रव्य अखण्ड धारारूप बना रहता है। ऐसे उत्पादव्यय-ध्रुव स्वभाववाले द्रव्य को जानने से अपने ज्ञायकस्वभाव की प्रतीति होती है और उस ज्ञायकस्वभाव की सन्मुखता से भगवान आत्मा स्वभावधारा में बहता है, विभावधारा से व्यय को प्राप्त होता है और उस प्रवाह में स्वयं अखण्डरूप से ध्रुव रहता है। इसप्रकार वीतरागता होकर केवलज्ञान और मुक्ति होती है। अहो! मुक्ति के कारणभूत ऐसा लोकोत्तर वस्तुविज्ञान समझाने वाले संतों को शत-शत वन्दन हो। गाथा ९९ के भावार्थ पर प्रवचन प्रत्येक द्रव्य सदैव स्वभाव में रहता है इसलिये “सत्' है। स्वभाव उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप परिणाम है। प्रत्येक वस्तु तीनोंकाल अपने स्वभाव में अर्थात् अपने परिणाम में रहती है। जिसप्रकार सुवर्ण अपने कुण्डल, हार आदि परिणामों में वर्तता है, कुण्डल, हार आदि परिणामों से सुवर्ण पृथक् नहीं वर्तता, उसीप्रकार प्रत्येक पदार्थ अपने वर्तमान में वर्तते हैं, अपने परिणाम से पृथक् कोई द्रव्य नहीं रहता। कोई भी पदार्थ अपने परिणामस्वभाव का उल्लंघन करके पर के परिणाम का स्पर्श नहीं करता, और परवस्तु उसके परिणाम का उल्लंघन करके अपने को स्पर्श नहीं करती। प्रत्येक वस्तु भिन्न-भिन्न अपने-अपने परिणाम में ही रहती है। आत्मा अपने ज्ञान या रागादि परिणाम में स्थित है, किन्तु शरीर की
SR No.008362
Book TitlePadartha Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size148 KB
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