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________________ पदार्थ विज्ञान आत्मा सत्, जड़ सत्, एक द्रव्य के अनंत गुण सत्, तीनकाल के 'स्व-अवसर' में होनेवाले परिणाम सत्, प्रत्येक समय के परिणाम उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक सत् । बस, इस सत् में कोई फेरफार नहीं होता। जहाँ ऐसा स्वीकार किया वहाँ मिथ्यात्व को बदलकर सम्यक्त्व प्रगट करने की बात आ ही गई, क्योंकि जिसने ऐसा स्वीकार किया उसने अपने ज्ञायक भाव को ही स्वीकार किया और वह द्रव्य स्वभावोन्मुख हुआ वहाँ वर्तमान परिणाम में सम्यक्त्व का उत्पाद स्वतः हो जाता है और उस परिणाम में पूर्व के मिथ्यात्वपरिणाम का तो अभाव ही है। पूर्व के तीव्र पाप परिणाम वर्तमान परिणाम में बाधक नहीं होते, क्योंकि वर्तमान में उनका अभाव है। पूर्व के तीव्र पाप के परिणाम इससमय बाधक होंगे ऐसा जिसने माना उसको वह विपरीत मान्यता बाधक होती है, किन्तु पूर्व के पाप तो उसको भी बाधक नहीं है। “पूर्व के तीव्र पाप के परिणाम इस समय बाधक होंगे" - ऐसा जिसने माना उसने द्रव्य को त्रिलक्षण नहीं जाना । यदि त्रिलक्षण द्रव्य को जाने तो उस त्रिलक्षण द्रव्य के वर्तमान उत्पाद परिणाम में पूर्व परिणाम का व्यय है, इसलिये पूर्व परिणाम बाधा देते हैं - ऐसा वह न माने, किन्तु प्रतिसमय के वर्तमान परिणाम को स्वतंत्र सत् जाने और उसकी दृष्टि, ये परिणाम जिसके हैं ऐसे द्रव्य पर जाये, इसलिये द्रव्यदृष्टि में उसे वीतरागता का ही उत्पाद होता जाये । इसप्रकार इसमें मोक्षमार्ग आ जाता है। - ३६ वीतराग या राग, ज्ञान या अज्ञान, सिद्ध या निगोद किसी भी एकसमय के परिणाम को यदि निकाल दें तो द्रव्य का सत्पना ही सिद्ध नहीं होता, क्योंकि तत् समय के परिणाम में द्रव्य वर्त रहा है, इसलिये अपने क्रमबद्ध परिणामों के प्रवाह में वर्तमान वर्त रहे द्रव्य को उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यवाला ही आनंद से मानना । स्वभाव में अवस्थित द्रव्य सत् है यह बात सिद्ध करने के लिये 23 प्रवचनसार-गाथा ९९ प्रथम तो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त परिणाम कहकर स्वभाव सिद्ध किया और उस स्वभाव में द्रव्य नित्य अवस्थित है - ऐसा सिद्ध किया । पहले परिणामों के उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य सिद्ध करने के लिये प्रदेशों का उदाहरण दिया था, वह परिणाम की बात तो पूर्ण हुई और अब द्रव्य के उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य को मोतियों के हार का दृष्टान्त देकर समझाते हैं। जिसप्रकार निश्चित लम्बाई वाले लटकते हुए मोती के हार में, अपनेअपने स्थान में प्रकाशित समस्त मोतियों में, पीछे-पीछे के स्थानों में पीछे-पीछे के मोती प्रगट होने से और पहले-पहले के मोती प्रगट न होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति का रचयिता डोरा अवस्थित होने से हार में त्रिलक्षणपना है। उदाहरणार्थ १०८ मोतियों का लटकता हुआ हार लिया जाये तो उसमें सभी मोती अपने-अपने स्थान में प्रकाशित हैं और पीछे-पीछे के स्थान में पीछे-पीछे का मोती प्रकाशित होता है, इसलिये उन मोतियों की अपेक्षा से हार का उत्पाद है तथा एक के बाद दूसरे मोती को लक्ष्य में लेने से पहले का मोती लक्ष्य में से छूट जाता है, इसलिये पहले का मोती दूसरे स्थान पर प्रकाशित नहीं होता, इस अपेक्षा से हार का व्यय है और सभी मोतियों में परस्पर सम्बन्ध जोड़ने वाला अखण्ड डोरा होने से हार ध्रौव्यरूप है। इसप्रकार हार उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य ऐसे लक्षणवाला निश्चित होता है। हार का प्रत्येक मोती अपने-अपने स्थान में है, पहला मोती दूसरा नहीं होता, दूसरा मोती तीसरा नहीं होता। जो जहाँ है वहाँ वही है, पहले स्थान में पहला मोती है, दूसरे स्थान में दूसरा मोती है और हार का अखण्ड डोरा सर्वत्र है। मोती की माला फेरते समय पीछे-पीछे का मोती अंगुली के स्पर्श में आता जाता है उस अपेक्षा से उत्पाद - व्यय- ध्रौव्य रूप त्रिलक्षणपना प्रसिद्धि पाता है। ३७ दृष्टान्त में अमुक लम्बाई वाला हार था, सिद्धान्त में नित्यवृत्तिवाला द्रव्य है। दृष्टान्त में लटकता हार था, सिद्धान्त में परिणमन करता हुआ
SR No.008362
Book TitlePadartha Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size148 KB
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