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________________ ३१ पदार्थ विज्ञान के वर्तमान को निकाल दें तो त्रिकाली वस्तु ही सिद्ध नहीं हो सकती। तीनों काल के वर्तमान का पिण्ड सो सत् द्रव्य है और तीनों काल का प्रत्येक वर्तमान परिणाम अपने अवसर में सत् है, वह अपने से उत्पादरूप है, पूर्व की अपेक्षा से व्ययरूप है और अखण्ड वस्तु के वर्तमान रूप से ध्रौव्यरूप है। ऐसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त परिणाम सो सत् है और वह द्रव्य का स्वभाव है। ऐसे सत् को कौन बदल सकता है? सत् को जैसे का तैसा जान सकता है; किन्तु उसे कोई बदल नहीं सकता। ___ वस्तु के द्रव्य-गुण-पर्याय का जैसा स्वभाव है वैसा ज्ञान जानता है; अंश को अंशरूप से जानता है और त्रिकाली को त्रिकाली रूप से जानता है - ऐसा स्वभाव जानने पर अकेले अंश की रुचि न रहने से त्रिकाली स्वभाव की रुचि की ओर श्रद्धा ढल जाती है। अंश को अंशरूप से और अंशी को अंशीरूप से श्रद्धा में लेने पर श्रद्धा का सारा बल अंश पर से हटकर त्रिकाली द्रव्य-गुण की ओर ढल जाता है। यही सम्यग्दर्शन है। यद्यपि द्रव्य, गुण और पर्याय - ये तीनों स्वज्ञेय हैं, पर एक समय में द्रव्य-गुण-पर्याय को सम्पूर्ण पिण्ड स्वज्ञेय बनाता है, क्योंकि पर्याय तो एक समयपर्यंत की है, उस पर एक समय तक ही दृष्टि टिक सकती है तथा द्रव्य त्रिकाली है उसपर दृष्टि ले जाने से ही स्थिरता बढ़ सकती है और उसकी रुचि में श्रद्दा का बल ढल जाता है। इसप्रकार द्रव्य को स्वज्ञेय बनाने से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है इसलिये इस 'ज्ञेय-अधिकार' का दूसरा नाम 'सम्यक्त्व-अधिकार' भी है। स्वज्ञेय परज्ञेय से बिलकुल भिन्न है। यहाँ राग भी स्वज्ञेय में आता है। समयसार में द्रव्यदृष्टि की प्रधानता से कथन है वहाँ स्वभाव दृष्टि में राग की गौणता हो जाती है, इसलिये वहाँ तो “राग आत्मा में होता ही नहीं, राग जड़ के साथ तादात्म्य वाला है" - ऐसा कहा जाता है। वहाँ द्रव्यदृष्टि अपेक्षा से राग को पर में डाल दिया और यहाँ प्रवचनसार में प्रवचनसार-गाथा ९९ ज्ञान-अपेक्षा से कथन है, इसलिये सम्पूर्ण स्वज्ञेय बताने के लिये राग को भी स्वज्ञेय में लिया। दृष्टि-अपेक्षा से राग पर में जाता है और ज्ञानअपेक्षा से वह स्वज्ञेय में आता है, परन्तु राग में ही स्वज्ञेय पूरा नहीं हो जाता । रागरहित द्रव्य-गुण-स्वभाव भी स्वज्ञेय है। इसप्रकार द्रव्य-गुणपर्याय तीनों को स्वज्ञेयरूप से जाना वहाँ राग में से एकत्वबुद्धि छूटकर रुचि का बल द्रव्य की ओर ढल गया। अकेले राग को सम्पूर्ण तत्त्व स्वीकार करने से स्वज्ञेय सम्पूर्ण प्रतीति में नहीं आता था और द्रव्य-गुणपर्यायरूप सम्पूर्ण स्वज्ञेय की प्रतीति होने से उस प्रतीति का बल त्रिकाली की ओर बढ़ जाता है, इसलिये त्रिकाली की मुख्यता होकर उस ओर रुचि का बल ढलता है। इसप्रकार इसमें भी द्रव्यदृष्टि आ जाती है। स्वद्रव्य-गुण-पर्याय - ये सब मिलकर स्वज्ञेय हैं, राग भी स्वज्ञेय है, किन्तु ऐसा जानने से रुचि का बल राग से हटकर अंतर में ढल जाता है। जो ज्ञान त्रिकाली तत्त्व को भूलकर मात्र प्रकट अंश को ही स्वीकार करता था; वह मिथ्याज्ञान था । जब से उपयोग द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों को ज्ञेयरूप जानकर अव्यक्त-शक्तिरूप अंतर्वभावोन्मुख हो तभी स्वज्ञेय को पूर्ण प्रतीति में लिया माना जाता है और तभी उसने भगवान कथित द्रव्यगुण-पर्याय का स्वरूप जाना - ऐसा कहा जाता है। जैसे, गुड़ को गुड़रूप जाने और विष को विषरूप जाने तो ही वह ज्ञान सही है। यदि गुड़ को विषरूप जाने और विष को गुड़रूप जाने तो वह ज्ञान सही नहीं है, मिथ्या है। उसीप्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों मिलकर एक समय में सम्पूर्ण स्वज्ञेय है; उसमें द्रव्य को द्रव्यरूप जाने, गुण को गुणरूप जाने और पर्याय को पर्यायरूप जाने तो ही ज्ञान सच्चा है। जैसा है वैसा न जाने या क्षणिक पर्याय को ही सम्पूर्ण तत्त्व मान लें अथवा क्षणिक पर्याय को सर्वथा ही जाने - तो वह ज्ञान सच्चा नहीं होता। पदार्थ के सच्चे ज्ञान बिना श्रद्धा भी सच्ची नहीं होती और ज्ञान-श्रद्धान बिना
SR No.008362
Book TitlePadartha Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size148 KB
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