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________________ क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका तो उसका प्रवाह त्रैकालिक, एक अर्थात् अखंड है। २. द्रव्य के प्रवाहक्रम का अंश परिणाम हैं। ३. काल में पर्यायों का एक नियमित प्रवाहक्रम है। ४. झूलते हए हार में मोतियों के प्रगट होने का काल नियमित है। (झूलते हुए हार से आशय दोनों उंगलियों के बीच पकड़कर एक-एक मोती क्रम से खिसकाने से है। जाप करने में यही प्रक्रिया अपनाई जाती है।) ५. जनवरी, फरवरी आदि माह तथा रविवार, सोमवार आदि दिन, कालांशों के ही नाम हैं। जिसप्रकार जनवरी वाले कालांश को फरवरी में तथा रविवार के कालांश को सोमवार में नहीं रखा जा सकता, उसीप्रकार किसी भी द्रव्य के एक समयवर्ती कालांश (पर्याय) को उससे पहले या बाद में नहीं किया जा सकता। ६. तीन काल के जितमे समय हैं, उतनी ही प्रत्येक द्रव्य की पर्यायें हैं। ७. तीनों काल के एक-एक समय में प्रत्येक द्रव्य की एक-एक पर्याय खचित है। सीढ़ियों के क्रम तथा सिनेमा की रील की लम्बाई के उदाहरण से भी क्षेत्र और काल का नियमित प्रवाहक्रम समझाया गया है। आजकल अनेक स्थानों पर स्वचलित सीढ़ियाँ लगी रहती हैं। वे सीढ़ियाँ भी अपने-अपने नियमित क्रम में प्रगट होती हैं। इसीप्रकार पर्यायें भी अपनेअपने नियमित क्रम में प्रगट होती हैं। प्रत्येक पर्याय स्वसमय से रचित है तो उसे आगे-पीछे कैसे किया जा सकता है? अतः प्रत्येक परिणाम अपने-अपने अवसर में ही प्रगट होता है। उक्त सम्पूर्ण विश्लेषण से यही निष्कर्ष निकलता है कि जिस द्रव्य की, जो पर्याय, जिस समय, जिस कारण से होनी है, उस द्रव्य की, वही पर्याय, उसी समय, उसी कारण (निमित्त) से होगी। विशेष स्पष्टीकरण :- जिसप्रकार मुम्बई, दिल्ली, कलकत्ता आदि नामवाले क्षेत्रों को उनके सुनिश्चित स्थान से इधर-उधर नहीं किया जा सकता, उसीप्रकार आकाश के या किसी भी, बहुप्रदेशी द्रव्य के प्रदेशों को उनके स्थान से इधर-उधर नहीं किया जा सकता, यह व्यवस्था ही द्रव्य का नियमित विस्तारक्रम क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन है। परमाणु और कालाणु एक प्रदेशी हैं, अतः उनमें विस्तारक्रम होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। इसीतरह जिसप्रकार जनवरी, फरवरी या रविवार, सोमवार आदि नाम वाले कालांशों को आगे-पीछे नहीं किया जा सकता; उसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य के किसी भी कालांश अर्थात् पर्याय को उसके स्वकाल से आगे-पीछे नहीं किया जा सकता। यह व्यवस्था ही द्रव्य का नियमित प्रवाहक्रम अर्थात् क्रमबद्धपर्याय है। क्षेत्र के सुनिश्चित क्रम में परिवर्तन नहीं किया जा सकता, यह बात हम प्रत्यक्ष देखते ही हैं । यद्यपि क्षेत्र अमूर्तिक हैं, तथापि १०० फुट लम्बा ५० फुट चौड़ा हॉल, बड़ा मकान, छोटा मकान, गाँव, जिला, महानगर आदि के व्यवहार का प्रयोग भी हम करते हैं, और हमें उनमें परिवर्तन का विकल्प भी नहीं होता। क्षेत्र हमें दिखाई पड़ता है। थोड़ी बहुत भूतकालीन पर्यायें हमारे स्मृतिज्ञान का विषय बनती हैं, परन्तु भविष्य की पर्यायों के बारे में हम कुछ नहीं जानते। यद्यपि रविवार के बाद सोमवार आदि प्राकृतिक नियमों को तथा स्वप्नज्ञान या ज्योतिषज्ञान के आधार पर कुछ लोग भविष्य के बारे में अनुमान अवश्य करते हैं, परन्तु सुख-दुख, संयोग-वियोग आदि के बारे में जैसा केवली जानते हैं, वैसा हम नहीं जानते हैं, वैसा हम नहीं जानते, इसलिए अपनी इच्छानुसार परिणमन करने की मिथ्या मान्यता से ग्रस्त रहकर दुखी हो रहे हैं। पर्यायों के निश्चित क्रम को अपने अज्ञान के कारण भले हम न जानते हों, परन्तु इससे वस्तु की व्यवस्था पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। पर्यायों का क्रम तो निश्चित है ही, जिसे सर्वज्ञ द्वारा प्रत्यक्ष जाना जाता है। ___ यही कारण है कि यहाँ सर्वज्ञ के ज्ञान के आधार से तथा क्षेत्र के नियमित विस्तार क्रम से काल की नियमितता समझाई जा रही है। प्रश्न :२५. विस्तारक्रम और प्रवाहक्रम को उदाहरण सहित समझाइये? २६. काल की नियमितता समझने के लिए क्षेत्र की नियमितता को आधार क्यों 24
SR No.008357
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size244 KB
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