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________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ एकत्व होने का अवकाश नहीं रहता। तात्पर्य यह है कि आन्तरिक एवं बाह्य जीवन ही परिवर्तित हो जाता है। ३२ ज्ञायक की पहिचान प्रश्न ज्ञायक में अपनत्व का आकर्षण कैसे उत्पन्न हो ? उत्तर - उक्त विषय समझने के पूर्व, यह निर्णय करना आवश्यक है कि "मैं हूँ कौन" ? अनादि से अज्ञानी जीव ने यह निर्णय ही नहीं किया है कि “मैं ज्ञायक हूँ ।" अपना अस्तित्व ज्ञायक माने बिना, उसमें अपनत्व का आकर्षण कैसे हो सकेगा? नहीं हो सकेगा; इसलिये सर्वप्रथम यह निःशंक निर्णय करके प्रतीति होनी चाहिये कि “मैं तो ज्ञायक ही हूँ।” अनादि से अज्ञानी ने आत्मा एवं पुद्गल ऐसे दो द्रव्यों की मिली-जुली पर्याय, जो प्राप्त होती है उस ही को मैं मान रखा है; लेकिन मैंपना तो एक में ही हो सकता है, दो में नहीं हो सकता; और उन दो में भी एक तो चेतना लक्षण जीव है और दूसरा है। अचेतन स्वभावी पुद्गल; दोनों में जातिगत भेद एवं स्वभाव भेद भी है। चेतना लक्षण जीव में जानने की क्रिया होती है; इसलिये जब तक वह शरीर में रहता है; तब तक शरीर में भी जानने की क्रिया दिखती रहती हैं और शरीर से निकलते ही जानन क्रिया के अभाव में शरीर निश्चेष्ट हो जाता है और मृत घोषित कर दिया जाता है तथा जलाकर मिट्टी अर्थात् पुद्गल में मिला दिया जाता है। तात्पर्य यह है कि उस शरीर एवं शरीर की पर्याय का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि यह शरीर अथवा शरीराकार पर्याय, जिसको अभी तक मैंने, मैं और मेरा माना था, वह मेरी भूल थी, वास्तव में शरीर मैं नहीं हूँ । क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ ३३ इस शरीर से निकलकर जाने वाला जीव चेतना लक्षण होता है, उसमें ही जानने की क्रिया होती है तथा जिसकी विद्यमानता में यह शरीर भी जीवित माना जाता है। उसके शरीर से निकल कर जाने पर, जानने की क्रिया भी उसके साथ चली जाती है। इससे स्पष्ट है कि जाननक्रिया का जो स्वामी है, वही इस शरीर को छोड़कर अन्यत्र जाता है; साथ ही उसका कभी नाश भी नहीं होता । शरीरों का परिवर्तन होते हुए भी, वह तो अविनाशी अनादि-अनन्त विद्यमान बना रहता है। उक्त चर्चा से स्थिति स्पष्ट है कि चेतना लक्षण जीव एवं शरीर की मिलीजुली पर्याय में से, अपनत्व करने योग्य तो अविनाशी रहने वाला जानन क्रिया का स्वामी ऐसा ज्ञायक जीव ही हैं; शरीर तो नाशवान् होने से अपनत्व करने योग्य तो नहीं; अपितु अपनत्व तोड़कर परत्व मानने योग्य है । यह सभी को अनुभव है, सरलता से समझ में आने योग्य यथार्थ स्वरूप है; लेकिन अज्ञानी को इस शरीराकार पर्याय में इतनी प्रगाढ़ता से अपनापन जमा हुआ है कि वह उक्त प्रत्यक्ष दिखने वाले सत्य को भी स्वीकार नहीं होने देता; इसलिये जिस आत्मार्थी ने अन्तरंग की समझ एवं रुचिपूर्वक उक्त तथ्य को निःशंकतापूर्वक स्वीकार कर लिया होगा; वही आत्मार्थी आत्मा के स्वरूप को समझकर, उसमें भी त्रिकाल विराजमान ऐसे अपने ज्ञायक को पहिचानकर, उसी में अपनेपन का आकर्षण उत्पन्न कर सकेगा, अन्य नहीं । उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट है और वास्तविक स्थिति भी यही है कि प्राप्त पर्याय में जानने की क्रिया का स्वामी अमूर्तिक होने से दृष्टिगोचर नहीं होता; फिर भी बुद्धिगम्य अवश्य होता है उसका ही अविनाशी अस्तित्व है; इसलिये उसकी सत्ता तो माननी ही पड़ेगी और वह सत्ता भी अनादिनिधन स्वीकार करनी पड़ेगी। अमूर्तिक होने पर भी उसमें जानने के अतिरिक्त सुख-दुःख का वेदन आदि
SR No.008356
Book TitleKrambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size200 KB
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