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________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ सत्ता बनाये रखती है। तात्पर्य यह है कि अनुस्यूति से रचित अनादिअनन्तकाल प्रवाह में वस्तु क्रमबद्ध परिणमती रहती है, उसी को क्रमबद्धपरिणमन अर्थात् पर्याय कहते हैं। यह तो वस्तु का वस्तुगत स्वभाव है, इसको तो सिद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं रहती, इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समय अनवरतरूप से अपनी-अपनी पर्यायों (परिणमनों) को करता ही रहता है यही पर्याय की क्रमबद्धता है - ऐसा प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है। जब सभी द्रव्य स्वतंत्ररूप से अपनी-अपनी पर्यायों को क्रमबद्ध करते ही रहते हैं, तो किसी द्रव्य के परिणमन में कोई अन्य द्रव्य कुछ भी हस्तक्षेप कर ही नहीं सकता; क्योंकि वह स्वयं अपने परिणमन करने में संलग्न रहता है। फलस्वरूप आत्मद्रव्य का अन्य किसी द्रव्य के साथ कर्ता-कर्म सम्बन्ध बन ही नहीं सकता; यह भी वस्तुस्वरूप है। इसप्रकार सहज ही स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि आत्मा अपने परिणमन का ही कर्ता है, अन्य द्रव्य का कर्ता हो ही नहीं सकता; विपरीत मान्यता से अपने को पर का कर्ता माने, तो भी कर्ता नहीं हो सकता। ज्ञानरूप जो आत्मा का स्वभाव है, आत्मा तो मात्र उसी का कर्ता है अर्थात् ज्ञानरूपी परिणमन को क्रमबद्ध करते रहना ही आत्मा का स्वभाव है। उक्तप्रकार की मान्यता ही वीतरागता की उत्पादक होने से यही आत्मा का वास्तविक अर्थात् यथार्थ पुरुषार्थ है। इसप्रकार पर्याय की क्रमबद्धता स्वीकार करना अर्थात् श्रद्धा करना ही आत्मा का यथार्थ पुरुषार्थ है । समयसार की गाथा ३०८३०९ की टीका में भी कहा है - "प्रथम तो जीव (क्रमनियमित) क्रमबद्ध ऐसे अपने परिणामों से क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ उत्पन्न होता हुआ जीव ही है, अजीव नहीं; इसीप्रकार अजीव भी क्रमबद्ध (क्रमनियमित) अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ अजीव ही है, जीव नहीं; क्योंकि जैसे (कंकड़ आदि परिणामों में से उत्पन्न होनेवाले ऐसे) सुवर्ण का कंकण आदि परिणामों के साथ तादात्म्य है; उसीप्रकार सर्वद्रव्यों का अपने परिणामों के साथ तादात्म्य है। इसप्रकार जीव अपने परिणामों से उत्पन्न होता है; तथापि उसका अजीव के साथ कार्यकारणभाव सिद्ध नहीं होता; क्योंकि सर्वद्रव्यों का अन्य द्रव्य के साथ उत्पाद्य-उत्पादक भाव का अभाव है; उसके (कार्यकारणभाव के) सिद्ध नहीं होने पर, अजीव के जीव का कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता और उसके (अजीव के जीव का कर्मत्व) सिद्ध न होने पर, कर्ता-कर्म की अन्य निरपेक्षतया (अन्य द्रव्य से निरपेक्षतया स्वद्रव्य से ही) सिद्धि होने से जीव से अजीव का कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता; इसलिए जीव अकर्ता सिद्ध होता है।" इसप्रकार उक्त कथन से भी पर्याय अर्थात् परिणमन की क्रमबद्धता वस्तु का स्वरूप सिद्ध होता है एवं उक्त श्रद्धा के द्वारा आत्मा का अकर्तृत्वस्वभाव भी सिद्ध होता है। ज्ञेयाकार ज्ञानाकार कैसे? प्रश्न - ज्ञान को ज्ञेयाकार अथवा ज्ञानाकार कहने में अन्तर क्या है? उत्तर - जैसा कि स्पष्ट किया जा चुका है कि ज्ञान के ज्ञेयाकार परिणमन की और ज्ञेयपदार्थ के तदनुकूल परिणमन की समकाल प्रत्यासत्ति है। ज्ञेय का परिणमन, ज्ञेयाकार परिणमन में निमित्त कारण है और ज्ञानपर्याय नैमित्तिक कार्य हैं; उसी पर्याय का उत्पादक कारण बताना हो तो ज्ञान अर्थात् आत्मा उपादान कारण है और ज्ञान
SR No.008356
Book TitleKrambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size200 KB
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