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________________ जोगसारु (योगसार) परिशिष्ट - २ दोहानुक्रमणिका १०४ मुनिराज योगीन्दु देव और उनके ग्रन्थ (विद्वानों के अभिमत) डॉ. गोपीचन्द पाटनी लिखते हैं :- “जिस तरह श्री कुंदकुंदाचार्य के समयसार, प्रवचनसार व नियमसार - ये तीन ग्रन्थ आध्यात्मिक विषय की परम सीमा है, उसीप्रकार श्री योगीन्दुदेव द्वारा विरचित 'परमात्मप्रकाश' व 'योगसार' भी आध्यात्मिक विषय की परम सीमा है। जो व्यक्ति ऐसे ग्रन्थों का निष्ठापूर्वक शुद्ध मन से अध्ययन, स्वाध्याय, मनन व अभ्यास करता है वह निश्चय ही मोक्षमार्ग पर चलकर अपने अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।' श्री उदयसिंह भटनागर लिखते हैं कि- "प्रसिद्ध जैन साध जोइन्द (योगीन्दु) जो एक महान विद्वान, वैयाकरण और कवि था, सम्भवतया चित्तौड़ का ही निवासी था। डॉ. श्रीरंजनसूरिदेव लिखते हैं :- "जोइन्दु ने ऊँचे आध्यात्मिक तथ्यों को सर्वसुगम भाषा में सामान्य से सामान्य जन तक पहुँचाने का पूलाघनीय राष्ट्रीय कार्य किया है। डॉ. भागचन्द जैन 'भास्कर' लिखते हैं :- “आचार्य योगीन्दु अपभ्रंश-साहित्य के कुन्दकुन्द" हैं जिन्होंने अध्यात्म क्षेत्र को प्रखर भक्त, आध्यात्मिक संत और कठोर साधक थे। उनकी साधक स्वानुभूति और स्वसंवेद्यज्ञान पर आधारित थी, इसलिए उनके ग्रन्थ रहस्य भावना से ओत-प्रोत हैं। उनका हर विचार अनुभूति की पवित्र निकष से निखरा हुआ है और सांप्रदायतीत और कलातीत है।' पद्मभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय लिखते हैं - "जैन-साहित्य का यह मूल ग्रन्थ अपनी गम्भीर विचारधारा के कारण विद्वानों तथा अध्यात्मरसिकों में विशेष प्रख्यात रहा है। यह ग्रन्थ गम्भीर अर्थ का विवेचन करता है और ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है जो मौलिक हैं तथा अपनी गम्भीरता के कारण जैन पण्डितों का ध्यान सदा आकृष्ट करते रहे हैं।' १ से ४ जैन विद्या संस्थान श्रीमहावीरजी राजस्थान से प्रकाशित पत्रिका "जैन विद्या' का योगीन्दु विशेषांक, पृष्ठ संख्या क्रमशः १, २, १६ और ४९. | ५. योगसार (सं. डॉ. कमलेशकुमार जैन), आशीर्वचन, पृष्ठ - ७ ६८ अजरु अमरु गुण-गण अप्पइँ अप्पु मुर्णतयहँ अप्प सरूवई जो अप्पा अप्पइँ जो मुणइ अप्पा अप्पउ जइ अप्पा सण णाणु मुणि अप्पा दसणु एक्कु अरहंतु वि सो सिद्ध अससीरु वि सुसरीरु अह पुणु अप्पा णवि आउ गलइ णवि मणु इंद-फणिंद-णरिंद य वि इक्क उपज्जइ मरइ इच्छा-रहियउ तव करहि इहु परियण ण हु एक्कलउ इंदिय-रहियउ एक्कुलउ जइ जाइसिहि एव हि लक्खण-लक्खियउ काल अणाइ अणाइ जिउ केवल-णाण-सहाउ सो को सुसमाहि करउ को गिहि-वावार-परिट्टिया घाइ-चउक्कहँ किउ विलउ चउ-कषाय-सण्णा-रहिउ चउरासी लक्खहिँ फिरिउ छह दव्वई जे जिण-कहिय जं वडमज्झहँ बीउ फुडु जइ जर-मरण-करालियउ जइ णिम्मल अप्पा मुणइ जइ णिम्मलु अप्पा मुणहि जइ बद्धउ मुक्कउ मुणहि जइ बीहउ चउ-गइ-गमण जइया मणु णिग्गंथु जिय जह लोहम्मिय णियड बुह जह सलिलेण ण लिप्पियइ जहिं अप्पा तहिं सयल-गुण जाम ण भावहि जीव जिणु सुमिरहु जिणु चिंतहु जीवाजीवहँ भेउ जो जाणइ जो णवि मण्णहि जीव फुडु जे परभाव चएवि मुणि जे सिद्धा जे सिज्झिहिहिं जेहउ जज्जरु णरय-घरु जेहउ मणु विसयहँ रमइ जेहउ सुद्ध अयासु जिय जो अप्पा सुद्धु वि मुणइ जो जिण सो हउँ जो जिणु सो अप्पा मुणहु जो णवि जाणइ अप्पु परु जो तइलोयहँ झेउ जिणु जो परमप्पा सो जि हउँ जो परियाणइ अप्पु परु जो
SR No.008355
Book TitleJogsaru Yogsar
Original Sutra AuthorYogindudev
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size129 KB
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