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________________ ५८ जोगसारु (योगसार) जोगसारु (योगसार) का क्या तात्पर्य है? उत्तर - यहाँ व्यवहार को छोड़ने का तात्पर्य है कि व्यवहार को परमार्थ मानना छोड़ दिया जाए। (दोहा ८९) प्रश्न-४६. "जो जीव सर्व व्यवहार को छोड़कर आत्मस्वरूप में रमण करता है, वह सम्यग्दृष्टि है" - यहाँ 'आत्मस्वरूप में रमण करता है' का क्या तात्पर्य है? उत्तर- रमणता दो प्रकार की होती है - १. रुचिरूप रमणता और २. उपयोगरूप रमणता । इनमें पहली श्रद्धा गुण की पर्याय है और दूसरी चारित्र गुण की पर्याय है। यहाँ सम्यग्दृष्टि का प्रसंग है। अतः यहाँ 'रमणता' का तात्पर्य रुचिरूप रमणता ही समझना चाहिए। (दोहा ८९) प्रश्न-४७. मोक्ष-सुख कैसा होता है? उत्तर - जब यह जीव समस्त विकल्पों से रहित होकर परमसमाधि को प्राप्त करता है, उस समय इसे जिस अपूर्व आनन्द का अनुभव होता है, उसे मोक्षसुख कहते हैं। प्रश्न-४८. पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत - इन चारों ध्यानों का स्वरूप स्पष्ट कीजिये। उत्तर - ध्यान चार प्रकार का होता है :- आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शक्लध्यान । इनमें से आर्तध्यान व रौद्रध्यान तो अप्रशस्त ध्यान है और धर्मध्यान व शुक्लध्यान प्रशस्त ध्यान है। इन सबके चार-चार भेद हैं, जिनको संक्षेप में निम्नलिखित सारिणी के द्वारा भली प्रकार समझा जा सकता है :पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत - ये चारों भेद संस्थानविचय नामक धर्मध्यान के प्रभेद हैं। इन चारों का स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है - (क) पिण्डस्थ - शरीर में स्थित, पर शरीर से भिन्न ज्ञानस्वरूपी परमात्मा का ध्यान करना पिण्डस्थ ध्यान है। (ख) पदस्थ - मन्त्रवाक्यों या ‘णमो अरिहंताणं' आदि पदों के द्वारा ध्यान करना पदस्थ ध्यान है। (ग) रूपस्थ - पुरुषाकारादि रूप से आत्मा का ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है। (घ) रूपातीत - सर्व विचारों या चिन्तन से रहित मात्र ज्ञाताद्रष्टा रूपसे आत्मा का ध्यानकरना रूपातीत ध्यान है। (दोहा ९८) प्रश्न-४९. चारित्र किसे कहते हैं? वह कितने प्रकार का है? उत्तर - चरण या आचरण को ही चारित्र कहते हैं। वह सामान्यपने आत्मविशुद्धि की दृष्टि से एक प्रकार का है। अंतरंग-बहिरंग अथवा निश्चय-व्यवहार अथवा प्राणिसंयम-इन्द्रियसंयम की अपेक्षा से दो प्रकार का है। उपशम-क्षय-क्षयोपशम अथवा उत्तममध्यम-जघन्य की अपेक्षा से तीन प्रकार का है। चार प्रकार के यति अथवा सराग-वीतराग-सयोग-अयोग की अपेक्षा से चार प्रकार का है। तथा सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार-विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात के भेद से पाँच प्रकार का भी है। इसी तरह चारित्र के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद भी किये जा सकते हैं। (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश २/२८२) अप्रशस्त प्रशस्त 7 आर्तध्यान रौद्रध्यान धर्मध्यान शुक्लध्यान १. इष्टवियोगज १. हिंसानंद १. आज्ञाविचय १. पृथक्त्ववितर्क २. अनिष्टसंयोगज २. मृषानंद २. अपायविचय २. एकत्ववितर्क ३. पीड़ाचिन्तन ३. चौर्यानंद ३. विपाकविचय ३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ४. निदान ४. परिग्रहानंद ४. संस्थानविचय ४. समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति
SR No.008355
Book TitleJogsaru Yogsar
Original Sutra AuthorYogindudev
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size129 KB
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