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________________ ५४ जोगसारु (योगसार) चाहिए-) (i) रत्न- आत्मा रत्न के समान मात्र स्व-पर-प्रकाशक है। (ii) दीपक- आत्मा दीपक के समान मात्र स्व-पर-प्रकाशक है। वह कहीं राग-द्वेष नहीं करता। (iii) दिनकर (सूर्य) - आत्मा दिनकर के समान सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करनेवाला दैदीप्यमान पदार्थ है। वह किसी पदार्थ का ग्रहण-त्याग नहीं करता । कहीं राग-द्वेष भी नहीं करता। (iv) दही-दूध-घी-आत्मा दही-दूध-घी के समान एकदम उज्ज्वल और पौष्टिक पदार्थ है। उसका भरपूर सेवन करना चाहिए। अथवा आत्मा दही-दूध में घी के समान है। जिसप्रकार दूध-दही में घी सर्वत्र व्याप्त है और सारभूत है, उसीप्रकार इस शरीर में आत्मा सर्वत्र व्याप्त है और सारभूत है।' (v) पाषाण - आत्मा पाषाण के समान अत्यन्त ठोस पदार्थ है। उसमें कोई परपदार्थ प्रवेश नहीं कर सकता। (vi) सोना - आत्मा सोने के समान मूल्यवान और रागादि मल से रहित पदार्थ है। (vii) चाँदी - आत्मा चाँदी के समान उज्ज्वल है। (viii) स्फटिक मणि - आत्मा स्फटिक मणि के समान सर्व परभावों को मात्र प्रतिबिम्बित करता है, उन रूप होता नहीं। (ix) अग्नि - आत्मा सम्पूर्ण ज्ञेयों को जाननेवाला है । (दोहा ५७) प्रश्न-३६. आत्मा शुद्ध आकाश के समान है - इसका क्या अभिप्राय है? उत्तर - आत्मा शुद्ध आकाश की भाँति सम्पूर्ण परपदार्थों से अलिप्त है। यद्यपि संयोग में अनन्त परपदार्थ हैं, तथापि स्वभाव से आत्मा सभी से पृथक् है, किसी के साथ एकमेक नहीं हुआ है। कविवर १. कविवर बनारसीदास ने भी आत्मा को दही-दूध में घी के समान कहा है - "ज्यों सुवास फल-फूल में, दही-दूध में घीव । पावक काठ पषाण में, त्यों शरीर में जीव ।। - बनारसी-विलास, अध्यात्मबत्तीसी, छंद ७ जोगसारु (योगसार) दौलतरामजी ने भी एक पद (८४वें) में लिखा है कि “मैं अज अचल अमल नभ जैसे।" परन्तु यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि आकाश तो जड़ है, परन्तु आत्मा चेतन है।' (दोहा५८-५९) प्रश्न-३७. मुनिराज योगीन्दु देव ने जन्म धारण करने को कैसा बताया है और पुनः जन्म धारण नहीं करने का क्या उपाय बताया है? उत्तर - मुनिराज योगीन्दु देव ने जन्म धारण करने को अत्यन्त लज्जाजनक बताया है। उनके अनुसार पुनः जन्म धारण नहीं करने का उपाय यह है कि नासाग्र दृष्टि से अपने अन्तर में अशरीरी आत्मा को देखा जाए। (दोहा ६०) प्रश्न-३८. आत्मा अशरीरी होकर भी स्वशरीर-प्रमाण है - इसका क्या अभिप्राय है? आत्मा शरीर नहीं है, शरीर से भिन्न है; शरीर तो जड़ और मूर्तिक है, परन्तु आत्मा जड़ और मूर्त्तिक नहीं है, आत्मा तो चेतन और अमूर्तिक है; अतः आत्मा को अशरीरी कहा गया है। तथा अशरीरी होकर भी आत्मा स्वशरीर-प्रमाण ही है, स्वशरीर से छोटा या बड़ा नहीं है, जैसा कि अन्य मतों में माना गया है। अन्य अनेक मतों का कहना है कि आत्मा वटबीज के समान है अथवा कमल पुष्प के समान है अथवा दीपक के आकार का है अथवा सम्पूर्ण लोक में व्याप्त विशालकाय है। उन सबका निराकरण करने के लिए आत्मा को स्वशरीर-प्रमाण कहा गया है। १. इस विषय में मध्यकालीन हिन्दी संत सुन्दरदास का यह पद देखिए - "देखो भाई ब्रह्माकाश समान । परब्रह्म चैतन्य व्योम जड़, यह विशेषता जान ।। दोऊ व्यापक अकल अपरिमित, दोऊ सदा अखण्ड। दोऊ लिपैं छिपैं कहुं नाहीं, पूरन सब ब्रह्माण्ड ।। ब्रह्मा मांहि जगत देखियत, व्योम मांहि पन यौँ ही। जगत अभ्र उपजै अरु बिनसै, वे हैं ज्यों के त्यों ही ।। दोऊ अक्षय अरु अविनासी, दृष्टि मुष्टि नहिं आवै। दोऊ नित्य निरन्तर कहिये, यह उपमान बतावै ।।" - संतकाव्य (परशुराम चतुर्वेदी), पृष्ठ ३८८
SR No.008355
Book TitleJogsaru Yogsar
Original Sutra AuthorYogindudev
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size129 KB
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