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________________ जोगसारु (योगसार) (दूहा-८७) जइ बद्धउ मुक्कउ मुणहि, तो बंधियहि णिभंतु । सहज-सरूवइ जइ रमहि, तो पायहि सिव संतु ।। (हरिगीत ) यदि बद्ध और अबद्ध माने बँधेगा निर्धान्त ही। जो रमेगा सहजात्म में तो पायेगा शिव शान्ति ही ।। हे भाई! यदि तू आत्मा को बद्ध या मुक्त मानेगा तो निःसन्देह बँधेगा और यदि तू सहज-स्वरूप में रमण करेगा तो मोक्षरूप शान्त अवस्था को प्राप्त करेगा। (दूहा-८८) सम्माइट्ठी-जीवडहँ, दुग्गइ-गमणु ण होइ। जड़ जाइ वि तो दोसु णवि, पुवक्किउ खवणे ।। (हरिगीत ) जो जीव सम्यग्दृष्टि दुर्गति-गमन ना कबहूँ करें। यदि करें भी ना दोष पूरब करम को ही क्षय करें।। सम्यग्दृष्टि जीव का दुर्गति में गमन नहीं होता। यदि कदाचित् होता भी है तो कोई दोष नहीं है, क्योंकि उससे वह पूर्वकृत कर्मों का क्षय ही करता है। (दूहा-८९) अप्प-सरूवइँ जो रमइ, छंडिवि सहु ववहारु । सो सम्माइट्ठी हवइ, लहु पावइ भवपारु ।। (हरिगीत) सब छोड़कर व्यवहार नित निज आतमा में जो रमें। वे जीव सम्यग्दृष्टि तुरतहिं शिवरमा में जा रमें ।। जो जीव सर्व व्यवहार को छोड़कर आत्मस्वरूप में रमण करता है, वह सम्यग्दृष्टि है और वह शीघ्र ही संसार से पार हो जाता है। १. पाठान्तर : खउ होइ। जोगसारु (योगसार) (दूहा-९०) जो सम्मत्त-पहाण बुह, सो तइलोय-पहाणु । केवल-णाण विलहुलहइ, सासय-सुक्ख-णिहाणु।" (हरिगीत) सम्यक्त्व का प्राधान्य तो त्रैलोक्य में प्राधान्य भी। बुध शीघ्र पावे सदा सुखनिधि और केवलज्ञान भी।। जो सम्यक्त्व-प्रधान ज्ञान है, वही तीन लोक में श्रेष्ठ है। उसी से शीघ्र केवलज्ञान एवं शाश्वत सुख के निधान को प्राप्त किया जा सकता है। (दूहा-९१) अजरु अमरु गुण-गण-णिलउ, जहिँ अप्पा थिरु ठाइ। सो कम्मेहँ ण बंधियउ, संचिय-पुव्व विलाइ ।। (हरिगीत) जहँ होय थिर गुणगणनिलय जिय अजर अमृत आतमा। तहँ कर्मबंधन हों नहीं झर जाँय पूरव कर्म भी ।। जो जीव अजर, अमर और गुणों के भण्डार - ऐसे आत्मा में स्थिर हो जाता है, वह नवीन कर्मों से नहीं बँधता, अपितु उसके पूर्वसंचित कर्मों का भी नाश हो जाता है। (दूहा-९२) जह सलिलेण ण लिप्पियइ, कमलणि-पत्त कया वि। तह कम्मेहिं ण लिप्पियइ, जइ रइ अप्प-सहावि।। (हरिगीत) जिसतरह पद्मनि-पत्र जल से लिप्त होता है नहीं। निजभावरत जिय कर्ममल से लिप्त होता है नहीं।। अर्थ :- जिस तरह कमलिनी-पत्र कभी भी जल से लिप्त नहीं होता, उसी तरह यदि आत्मस्वभाव में लीनता हो तो जीव कर्मों से लिप्त नहीं हो। *किसी-किसी प्रति में इन दोनों दोहों में क्रमविपर्यय पाया जाता है अर्थात् ९० के स्थान पर ९१वाँ और ९१ के स्थान पर ९०वाँ दोहा पाया जाता है।
SR No.008355
Book TitleJogsaru Yogsar
Original Sutra AuthorYogindudev
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size129 KB
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