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________________ जोगसारु (योगसार) (दूहा-६९) इक्क उपज्जइ मरइ कु वि, दुहु सुहु भुंजइ इक्कु। णरयहँ जाइ वि इक्क जिउ, तह णिव्वाणहँ इक्कु।। (हरिगीत) जन्मे-मरे सुख-दुःख भोगे नरक जावे एकला। अरे! मुक्तीमहल में भी जायेगा जिय एकला ।। जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरता है। अकेला ही सुख भोगता है और अकेला ही दुःख भोगता है। अकेला ही नरक में जाता है और अकेला ही निर्वाण में जाता है। (दूहा-७०) एक्कुलउ जइ जाइसिहि, तो परभाव चएहि । अप्पा झायहि णाणमउ, लहु सिव-सुक्ख लहेहि ।। (हरिगीत) यदि एकला है जीव तो परभाव सब परित्याग कर । ध्या ज्ञानमय निज आतमा अर शीघ्र शिवसुख प्राप्त कर ।। हे भाई ! इसप्रकार यदि सर्वत्र तू अकेला ही जाता है और अकेला ही जाएगा तो समस्त परभावों का त्याग कर दे और एक ज्ञानमय आत्मा का ही ध्यान कर, ताकि तुझे शीघ्र ही मोक्ष-सुख प्राप्त हो। (दहा-७१) जो पाउ वि सो पाउ मुणि, सब्बु इ को वि मुणेहि। जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ, सो बुह को वि हवेइ ।। (हरिगीत) हर पाप को सारा जगत ही बोलता - यह पाप है। पर कोई विरला बुध कहे कि पुण्य भी तो पाप है।। अहो ! जो पाप है उसे तो सभी पाप मानते हैं, परन्तु जो पुण्य को भी पाप कहता है वह कोई विरला ज्ञानी ही होता है। जोगसारु (योगसार) (दूहा-७२) जह लोहम्मिय णियउ बुह, तह सुण्णम्मिय जाणि। जे सुह असुह परिच्चयहिँ, ते वि हवंति हु णाणि ।। (हरिगीत) लोह और सुवर्ण की बेड़ी में अन्तर है नहीं। शुभ-अशुभ छोड़ें ज्ञानिजन दोनों में अन्तर है नहीं ।। हे ज्ञानी ! जैसी लोहे की बेड़ी होती है, वैसी ही सोने की बेड़ी होती है; अत:वास्तव में ज्ञानी तो वे ही हैं जो शुभ और अशुभ दोनों का त्याग कर देते हैं। (दूहा-७३) जइया मणु णिग्गंथु जिय, तइया तुहुँ णिग्गंथु । जइया तुहुँ णिग्गंथु जिय, तो लब्भइ सिवपंथु ।। (हरिगीत) हो जाय जब निर्ग्रन्थ मन निर्ग्रन्थ तब ही तू बने । निर्ग्रन्थ जब हो जाय तू तब मुक्ति का मारग मिले ।। हे जीव ! जब तेरा मन निर्ग्रन्थ होगा, तभी तू सच्चा निर्ग्रन्थ होगा। और जब तू ऐसा सच्चा निर्ग्रन्थ होगा, तभी मोक्षमार्ग को प्राप्त कर सकेगा। (दूहा-७४) जं वडमज्झहँ बीउ फुडु, बीयहँ वडु वि हु जाणु। तं देहहँ देउ वि मुणहि, जो तइलोय-पहाणु ।। (हरिगीत) जिस भाँति बड़ में बीज है उस भाँति बड़ भी बीज में। बस इस तरह त्रैलोक्य जिन आतम बसे इस देह में।। जिसप्रकार जैसे वट में बीज होता है वैसे ही बीज में वट भी स्पष्ट ज्ञात होता है, उसीप्रकार इस देह में भी इस त्रिलोकप्रधान देव की श्रद्धा करो।
SR No.008355
Book TitleJogsaru Yogsar
Original Sutra AuthorYogindudev
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size129 KB
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