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________________ ११२ जिन खोजा तिन पाइयाँ सुखी जीवन से ११३ __आधि - मानसिक रोग, क्रोधादि विकारीभाव । व्याधि - शारीरिक रोग और उपाधि - परकृत उपद्रव या कर्तृत्व का अहंकार बढ़ाने वाली दूसरों द्वारा प्रदत्त यशवर्द्धक उपाधियाँ आदि। __ जो इन तीनों आपदाओं से अप्रभावित रहते हैं, इनसे जिनका चित्त आन्दोलित नहीं होता; वे ही समाधि की साधना में सफल होते हैं। जिसने जीवन में कभी निराकुल सुख का अनुभव ही न किया हो, जिन्हें जीवन भर मुख्यरूप से आर्तध्यान व रौद्रध्यान ही रहा हो; उनका मरण कभी नहीं सुधर सकता । जब उनका जीवन ही समाधि सम्पन्न नहीं हो पाया तो उनका मरण समाधिपूर्वक कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता। (७७) लोक में जितने भी जीव हैं, जीवन तो सभी जीते ही हैं; पर वह जीवन वस्तुतः जीवन ही नहीं है जो मर-मर कर जिया जाय मरण तुल्य मानसिक और शारीरिक वेदना को भोगते हुए जिया जाय । क्या वह जीवन भी कोई जीवन है जो दिन-रात रोते-रोते बीते? दुःख के अथाह सागर में डूबे-डूबे बीते? जिन्होंने संसार के दुःखों में ही सुख की कल्पना कर ली हो, जो सांसारिक दुःखों को ही सुख समझ बैठे हों; उन्हें सच्चे सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है? जिन्हें निराकुल सुख की पहिचान ही नहीं हो, जिन्हें सुखी जीवन की कला ही नहीं आती हो, भला वे सुखी जीवन कैसे जी सकते हैं? जहाँ भी आगम में समाधि की चर्चा आई है, उसे जीवन साधना, आत्मा की आराधना और ध्यान आदि निर्विकल्प भावों से ही जोड़ा है। अतः समाधि का अर्थ शेष जीवन को निष्कषाय भाव से समतापूर्वक अतीन्द्रिय आनन्द व आत्मानुभूति के साथ जीना, जो सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा के आश्रय से होता है। (७८) जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्त-वस्तुस्वातंत्र्य, अकर्तावाद, चार अभाव, पाँच समवाय, छह द्रव्य, छह सामान्य गुण एवं षट्कारक आदि जिनकी संक्षिप्त चर्चा यथा स्थान आ चुकी है, समय-समय पर अपनी सुविधानुसार उनकी पुनरावृत्ति अवश्य करते रहना चाहिए; क्योंकि वस्तुतः यही वीतरागता प्राप्त करने का विज्ञान है, यही सुखी जीवन जीने की कला है। जिन्होंने वस्तुस्वातंत्र्य और अकर्तृत्व जैसे सिद्धान्तों को समझकर अपना जीवन समता और समाधिपूर्वक निराकुल सुख से जिया हो, उनका मरण भी समाधिपूर्वक ही होता है, समतापूर्वक ही होता है। ___ वस्तुतः आधि-व्याधि एवं उपाधि से रहित आत्मा के निर्मल परिणामों का नाम ही समाधि है। आगम के अनुसार जिसका आयुबन्ध जिसप्रकार के विशुद्ध या संक्लेश परिणामों में होता है, उसका मरण भी वैसे ही परिणामों में होता है। अतः ऐसा कहा जाता है कि जैसी गति वैसी मति । अतः यदि कुगति में जाना पसन्द न हो तो मति को सुमति बनाना एवं विचारों को व्यवस्थित करना आवश्यक है। मृत्यु को महोत्सव बनानेवाला मरणोन्मुख व्यक्ति जीवन भर के तत्त्वाभ्यास के बल पर मानसिक रूप से अपने आत्मा को अजर-अमर, अनादि-अनन्त, नित्य विज्ञान घन व अतीन्द्रिय-आनन्द स्वरूप ही अनुभव करता है, आत्मा के त्रैकालिक स्वरूप के चिन्तन-मनन द्वारा तथा देह से देहान्तर होने की क्रिया को सहज भाव से स्वीकार करके चिर विदाई के लिए तैयार हो जाता है। साथ ही चिर विदाई देने वाले कुटुम्ब-परिवार के विवेकी व्यक्ति भी बाहर से वैसा ही वैराग्यप्रद वातावरण बनाते हैं, तब कहीं वह मृत्यु महोत्सव बन पाती है। कभी-कभी अज्ञानवश मोह में मूर्च्छित हो परिजन-पुरजन अपने प्रियजनों को मरणासन्न देखकर या उनके मरण की सम्भावना से ही रोने (५८)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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