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________________ ६० इन भावों का फल क्या होगा से~ (१) ___ धर्म आचरण से ही मनुष्य जीवन और पशु जीवन में अन्तर देखा जा सकता है; अन्यथा आहार, निद्रा, भय व मैथुन तो पशु और मनुष्य में समान ही होते हैं। जितने देर प्रवचन में बैठे रहते हैं, उतनी देर तक पाप प्रवृत्ति से तो बचे ही रहते हैं। विषय जितना जो पल्ले पड़ा, वही ठीक। जिन खोजा तिन पाइयाँ तथा स्वरूप में एकाग्रता करके उसी में जमने-रमने का प्रयत्न करता हूँ? इसप्रकार वह संपूर्ण आशाओं का और सबसे ममत्वभाव का त्याग करके तत्त्वज्ञान के बल पर कषायों को कृश करते हुए देह का त्याग करता है। (७५) कोई कितना भी रागी-द्वेषी या वैरागी क्यों न हो; पर जीवन की अन्तिम घड़ियों में तो प्रायः सभी गृहस्थों के अन्दर अपने परिजनों एवं सगे-सम्बन्धियों से मिलने, उन्हें संबोधन करने, समझाने तथा उनके प्रति हुए अपने अपराधों की क्षमा याचना करने-कराने की भावना जागृत हो ही जाती है। अतः वह सोचता है - सभी रिश्ते शरीर के रिश्ते हैं। जब तक यह शरीर है, तब तक आपके सब रिश्तेदार हैं, शरीर बदलते ही सब रिश्ते बदल जायेंगे। शरीर से ही इन रिश्तों की पहचान है। आत्मा को कौन पहचानता है? जब किसी ने किसी के आत्मा को कभी देखा ही नहीं है तो उसे पहचाने भी कैसे?' (७६) समाधिस्थ व्यक्ति कहता है - 'इस शरीर के भाई-बंधुओ! बेटेबेटियो! व कुटुम्बीजनो! मेरा आप सबसे कोई भी संबंध नहीं है। ये सब रिश्ते जिसके साथ थे, उससे ही जब मैंने संबंद्ध विच्छेद कर लिया है तो अब आपसे भी मेरा क्या संबंध? अतः मुझसे मोह-ममता छोड़ो, मैं भी इस दुखदायी मोह से मुँह मोड़कर सबसे संबंध छोड़ना चाहता हूँ। ऐसा किए बिना सुखी होने को अन्य कोई उपाय नहीं है। ___ मैं शरीर नहीं, मैं तो एक अखण्ड ज्ञानानंद स्वभावी अनादि-अनन्त एवं अमूर्तिक आत्मा हूँ तथा यह शरीर मुझसे सर्वथा भिन्न जड़ स्वभावी, सादि-सान्त, मूर्तिक पुद्गल है। इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। ॐ शान्ति .......... शान्ति ........... शान्ति ......... एक ज्वलंत प्रश्न है कि - जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार जब भगवान वीतरागी होने के कारण पूजक और निन्दक पर तुष्ट-रुष्ट होकर किसी का भला-बुरा करते ही नहीं हैं, राग-द्वेष रहित होने से किसी को कुछ देते-लेते भी नहीं हैं तो फिर उनकी पूजन-अर्चन करने का क्या प्रयोजन है? (४) समाधान यह है - जो बिना लौकिक कामना किए उन वीतरागी देव के पवित्र गुणों का स्मरण करता है, उसका मलिन मन स्वतः निर्मल हो जाता है, उसके पापरूप परिणाम स्वतः पुण्य व पवित्रता में पलट जाते हैं। अशुभ भावों से बचना और मन का निर्मल हो जाना ही जिनपूजा का एवं जिनेन्द्र भक्ति का सच्चा प्रयोजन और फल है। यह सोचना भी सही नहीं है कि - पूजा का कुछ भी लाभ नहीं होता। यदि तुम पूजा-पाठ नहीं कर रहे होते तो क्या तुम्हारे मन में पूजन के सम्बन्ध में ये प्रश्न उठते, जो अभी उठ रहे हैं? क्या यह जिज्ञासा का जगना कोई लाभ नहीं है, कोई उपलब्धि नहीं है? । दूसरी बात ; यदि हम सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की शरण में नहीं आये होते तो किसी अन्य अदेव-कुदेव की शरण में पड़े होते। अथवा किसी और हा हा (३२)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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