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________________ | आगे बढ़े तो एक नई समस्या सामने आई। भूमि पर चलकर आगे जाने का मार्ग ही नहीं था। तब रुद्रदत्त | ने चारुदत्त से ऐसा निर्दयतापूर्ण खोटा प्रस्ताव रखा, जो चारुदत्त की अन्तरात्मा को स्वीकृत नहीं हुआ, फिर भी दुष्ट प्रकृति के रुद्रदत्त ने अपने और चारुदत्त के बकरे को मार कर उसके चमड़े से दो भाथड़ी बनाकर कहा कि हम दोनों इनमें बैठ जाँय । थोड़ी देर में पैनी चोंचवाले भारुण्ड पक्षी आयेंगे और हमारी भाथड़ियों को | ले जाकर सुवर्णद्वीप में छोड़ देंगे। चारुदत्त बकरों के मारने को सहमत तो हुआ ही नहीं, प्रतिकार भी किया, किन्तु जब चारुदत्त की समझ में यह बात आ गई कि - रुद्रदत्त बकरों को मारे बिना मानेगा नहीं तो उसने मरनासन्न बकरों को णमोकार मंत्र सुनाया, फलस्वरूप बकरों के प्राण शान्त परिणामों से छूटे। उन बकरों की खाल से बनी भाथड़ियों में से एक में रुद्रदत्त स्वयं बैठ गया और दूसरी में चारुदत्त को बैठा दिया। कुछ समय पश्चात् दोनों को दो भारुण्ड पक्षी ले उड़े। चारुदत्त ने कहा - 'मेरी भाथड़ी का एक काना भारुण्ड पक्षी ले गया। अत: उसने मुझे स्वर्णद्वीप के बजाय रत्नद्वीप में ले जाकर छोड़ दिया। मैंने वहाँ रत्नों से देदीप्यमान स्वर्ग के समान एक बहुत सुन्दर द्वीप देखा। जिनमन्दिर भी देखा। जिनमन्दिर के समीप एक चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के दर्शन हुए उनके दर्शन कर मुझे अपूर्व आनन्दानुभूति हुई। मैंने जिनमन्दिर के दर्शन कर तीन प्रदक्षिणायें दीं। ध्यान का समय पूरा होने पर मुनिराज मुझसे बोले - "हे चारुदत्त ! यहाँ तुम्हारा आगमन कैसे हुआ? घर पर कुशल मंगल तो है।" मैंने आश्चर्यचकित होकर पूछा - 'हे नाथ ! आपके प्रसाद से सर्वकुशल मंगल है।' किन्तु मैं जानना चाहता हूँ कि आप मेरा नाम कैसे जानते हैं ? मुझे तो ऐसा स्मरण ही नहीं आ रहा कि मैंने पहले भी आपके | पावन दर्शन किए हैं ? मुनिराज ने उत्तर दिया - "मैं वहीं अमितगति नाम का विद्याधर हूँ, जिसे चम्पापुरी में शत्रु ने कील | दिया था और तुमने छोड़ा था। उसी घटना ने मेरे हृदय में वैराग्य का भाव भर दिया। फिर मुझे श्रुत के || FOR FRVF
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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