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________________ ६० F5 0 वितण्डवाद बढ़ता देख नारद यह कहकर घर चला गया कि - "पर्वत ! मैं तुम्हें देखने आया था, देख || लिया; तुम भ्रष्ट हो गये हो"। नारद के चले जाने पर पर्वत इस बात से चिन्तित हो गया कि - "कहीं ऐसा न हो कि राजा वसु नारद के पक्ष में निर्णय दे दें।" वह माता के पास गया और नारद से हुई सारी बात कह सुनाईं। पर्वत की हिंसा पोषक बात सुनकर पहले तो उसकी माँ का हृदय भी बहुत दुःखी हुआ। उसने पर्वत की बहुत निन्दा की। उसके मुँह से बार-बार यही निकल रहा था कि 'हे पर्वत ! तेरा कहना सही नहीं है। नारद का कहना ही सही है। समस्त शास्त्रों के पूर्वापर संदर्भ के ज्ञान से जिनकी बुद्धि अत्यन्त निर्मल थी, ऐसे तेरे पिता ने जो कहा था, वही नारद कह रहा है' इसप्रकार पर्वत से कहने पर भी जब उसने अपनी हठ नहीं छोड़ी तो पुत्रानुराग वश वह राजा वसु के पास गई। अध्ययन के पश्चात् गुरु के समीप धरोहर रूप रखी हुई गुरु दक्षिणा का स्मरण दिलाते हुए वसु को सब वृतान्त सुनाकर कहने लगी - 'यद्यपि नारद का कथन ही सत्य है, परन्तु तुम्हें पर्वत के जीवन की रक्षा हेतु पर्वत का ही समर्थन करना है और नारद की बात को मिथ्या बताना है।' स्वस्तिमती द्वारा राजा वसु को गुरु दक्षिणा स्मरण कराने से वसु को उसकी बात मानने को बाध्य होना पड़ा। तत्पश्चात् अगले दिन जब राजा वसु सभासदों और आम जनता के साथ राजसभा में स्फटिक के सिंहासन पर बैठा था तब पर्वत एवं नारद ने राजसभा में प्रवेश किया। अन्तरीक्ष सिंहासन पर स्थित राजा वसु को अभिवादनपूर्वक आशीर्वाद देकर नारद एवं पर्वत अपने-अपने सहायकों के साथ यथायोग्य स्थानों पर बैठ गये। वहाँ अनेक जटाधारी तापसी और विद्वान पण्डित भी उपस्थित थे। जब सब विद्वान यथास्थान यथायोग्य आसनों पर बैठ गये तब जो ज्ञान और अवस्था में वृद्ध थे, उन्होंने राजा वसु से निवेदन किया कि - 'हे राजन ! ये नारद और पर्वत किसी विसंवाद को सुलझाने के लिए आपके पास आये हैं। आप न्यायमार्ग के वेत्ता हैं, इसलिए आपकी अध्यक्षता में इन सब विद्वानों के बीच 0 REV
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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