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________________ बड़े-बड़े सामन्तों से घिरी राजा दक्ष की पत्नी इला रानी अपने एलेय पुत्र को लेकर दुर्गम स्थान में चली ह गई और वहाँ स्वर्गपुरी के समान एक नगर बसाया, जो इलावर्धन नाम से प्रसिद्ध हुआ। वहाँ अपने पुत्र रि एलेय को राजा बनाया, जो हरिवंश के तिलक के रूप में जाना जाने लगा। एलेय ने भी अन्य अनेक नगर वं बसाये और अन्य छोटे-छोटे राजाओं को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया। जीवन के अन्तिम चरण | में वह भी अपने पुत्र कुणिक को राज्य सौंपकर मुनिव्रत अंगीकार कर तपश्चरण करने हेतु वन में चला गया । ५७ hotos 5 श क था रा कुणिक के बाद अगली १६ पीढ़ियों में एक से बढ़कर एक - अनेक उत्तराधिकारी राजा हुए। सभी पूर्व पीढ़ियों ने अपनी अगली पीढ़ी को राज्यसत्ता सौंपकर मानव जीवन को सार्थक करनेवाली जैनेश्वरी दीक्षा ली और मुनिव्रतों का पालन करते हुए आत्मसाधना एवं समाधिमरण कर सद्गति को प्राप्त होते रहे । १६ | पीढ़ियों के उपरान्त राजा अभिचन्द्र हुए। अभिचन्द्र ने विंध्याचल के ऊपर चेदिराष्ट्र की स्थापना की तथा जा शुक्तिमती नदी के किनारे शुक्तिमती नाम की नगरी बसाई । व अभिचन्द्र की वसुमती नाम की रानी से वसु नाम का पुत्र हुआ। वसु आर्द्र हृदयी था । उसी नगरी में वेदों का वेत्ता एक क्षीरकदम्ब नाम का ब्राह्मण रहता था, जो अध्यापन कार्य करता था। उसके पर्वत नामक | पुत्र था। गुरु क्षीरकदम्ब ने राजकुमार वसु, अपने पुत्र पर्वत और नारद इन तीनों शिष्यों को समस्त शास्त्र | पढ़ाये। एक बार क्षीरकदम्ब उक्त तीनों शिष्यों को आरण्यक वेद पढ़ा रहा था कि उसने किसी चारण ऋद्धिधारी मुनि द्वारा अपनी भविष्यवाणी के रूप में यह वचन सुने थे कि - वेदों के अध्ययन-अध्यापन में संलग्न इन चार मनुष्यों में अपने पाप परिणामों के कारण दो तो अधोगति को प्राप्त होंगे और दो पुण्य | परिणामों के फलस्वरूप ऊर्ध्वगति प्राप्त करेंगे। वे चारणऋद्धि के धारक मुनिराज अवधिज्ञानी थे, दयालु | थे और संसार की सब स्थिति जानते थे। मुनिराज तो उक्त चारों प्राणियों के सम्बन्ध में समाधान करके वहाँ से अन्यत्र चले गये, परन्तु मुनिराज के श्रीमुख से अपनी भविष्यवाणी सुनकर क्षीरकदम्ब शंकित हो उठा । दिन ढलने पर उसने तीनों शिष्यों को तो घर भेज दिया और स्वयं अन्यत्र चला गया। उसकी पत्नी स्वस्तीमती सु, प To I ~ ~ to र्व औ र र द २
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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