SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ । ४१|| ममत्व, कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व बुद्धि को त्याग देते हैं । इष्टानिष्ट के संयोग-वियोग की मिथ्या कल्पनाओं || से उत्पन्न आर्तध्यान एवं विषयों में आनन्द मानने रूप रौद्र ध्यान के दुष्परिणामों को जान लेते हैं, वे जीव अल्पकाल में मिथ्यामान्यता और इष्टानिष्ट कल्पनाओं से उत्पन्न संसार सागर के भयंकर दुःखों से मुक्त हो सकते हैं। | मुनिराज के ऐसे पावन मंगलमय तत्त्वोपदेश को सुनकर-प्रत्युत्पन्नमति राजा सुमुख गद्-गद् हो गया। उसे ऐसा लगा कि मुनिश्री ने तो अपने ज्ञानाञ्ज से मुझ मोहान्ध व्यक्ति के ज्ञान नेत्र ही खोल दिये हैं। बस, फिर क्या था? उसने मुनिराज की प्रेरणा से नियमित स्वाध्याय करने की प्रतिज्ञा तो ले ही ली, परस्त्री को ग्रहण करने जैसे जघन्य अपराध के लिए भी पश्चात्ताप की अग्नि में जलकर अपने पापों का प्रायश्चित करने लगा। उधर वनमाला के पति वीरक-वैश्य ने पत्नी के वियोग में अधिक दुःखी न होकर तत्त्वज्ञान के अभ्यास से तथा पत्नी के परपुरुष की ओर हुए अनुराग की घटना से संसार की असारता और विषयों के सुखों की क्षणभंगुरता जानकर समस्त सांसारिक सम्बन्धों से नाता तोड़कर एवं विषयसुख से मुख मोड़कर जिनदीक्षा धारण कर ली थी, इसकारण अब राजा सुमुख वनमाला को छोड़कर उसे निराश्रय कर दे; यह तो संभव नहीं था; पर उसका मोह भंग अवश्य हो गया था। अतः अब उसे अपनी भूल का अहसास बहुत गहराई से हो रहा था। इस प्रकार अचानक हुए परिणामों के परिवर्तन से तत्त्वज्ञान के अभ्यास और मुनिराज को भक्ति, पूजा, विनय-सत्कार के साथ दिए गये आहार दान आदि के फलस्वरूप राजा सुमुख-वनमाला का काल सुख से बीत रहा था, इधर तो उनकी आयु का अन्त आया और उधर उन पर उल्कापात हुआ। इस तरह सोते-सोते ही उल्कापात के निमित्त से मृत्यु को प्राप्त होकर दोनों विजयार्द्ध पर्वत पर विद्याधरविद्याधरी के रूप में उत्पन्न हुए। राजा सुमुख का जीव विजयार्द्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी पर स्थित हरिपुर नगर के रक्षक पवनगिरि विद्याधर और उसकी पत्नी मृगावती विद्याधरी के घर पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। इस भव में उसका | प्रा
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy