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________________ नारद का पर्यायगत स्वभाव ही कुछ ऐसा था कि उन्हें एक-दूसरे को लड़ाने-भिड़ाने और दुःखी करने | में ही मजा आता था, कुछ न कुछ उठा-पटक करने में ही उन्हें आनन्द आता था। वे अपने ऐसे स्वभाव के कारण आज भी बदनाम हैं। जब कोई ऐसा खरा-खोटा काम करता है तो लोग कहते हैं कि 'भैया ! तू यह नारद का काम क्यों कर रहा है। इससे तुझे बदनामी के सिवाय और क्या मिलने वाला है; परन्तु कुछ व्यक्ति अपनी आदत से मजबूर होते हैं, जिन्हें अपने भविष्य के भले-बुरे का विवेक नहीं रहता और नारदीय प्रवृत्ति में ही वे पड़े रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों से मैं यह कहना चाहता हूँ कि तुम नारदजी की होड़ नहीं कर सकते। वे बहुत विवेकी भी थे। हरिवंश पुराण में उन्हें अन्त में मोक्षगामी कहा है। तात्पर्य यह है कि उन्होंने तो अन्त में यह सब त्यागकर आत्मा की साधना कर परमात्मपद प्राप्त कर लिया। क्या हम अपने जीवन में उन जैसा परिवर्तन लाकर अपना कल्याण कर सकेंगे? नारद के विविध प्रकार के बदलते व्यक्तित्व से हम यह शिक्षा ले सकते हैं कि यदि कोई भोगों की तीव्र लिप्सा और क्रोधादि कषायों के आवेश से तथा अपने स्वार्थीपन से बड़े-बड़े पाप करके दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करता रहा है तो फिर वह समय आने पर विरागी होकर अपने एवं संसार का स्वरूप तथा वस्तु व्यवस्था का सच्चा स्वरूप जानकर उसमें श्रद्धा करके मुक्ति प्राप्त कर सकता है। अत: “मैं पापी हूँ, मेरा कल्याण नहीं हो सकता" ऐसा सोचकर निराश नहीं होना चाहिए। 8 DEEPE VEFrv
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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