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________________ % E कृष्ण सरीखे जगत मान्य जन, परहित जिये-मरे । फिर भी भूलचूक से जो जन करनी यथा करे ।। उसके कारण प्राप्त कर्मफल, भुगतहि जाय झरैं। करम फल भुगतहिं जाय टरै ।।२।। जनम जैल में शरण ग्वालघर, बृज में जाय छिपै । जिनके राजकाज जीवन में, दूध की नदी बहै ।। वे ही चक्री अन्त समय में, नीर बूंद तरसै। करम फल भुगतहिं जाय टरै ।।३।। जरत कुंवर जिसकी रक्षाहित, वन-वन जाय फिरै । अन्त समय में वही मौत के, कारण आय बने ।। ऐसी दशा देख कर प्राणी, क्यों नहिं स्वहित करै । करम फल भुगतहिं जाय टरै ।।४।। बहुत भले काम करने पर भी यदि कभी/किसी का/जाने अनजाने दिल दुःखाया होगा, अहित हो गया | होगा अथवा अपने कर्तृत्व के झूठे अभिमान में पापार्जन किया होगा तो वह भी फल दिए बिना नहीं छूटता। तीर्थंकर मुनि पार्श्वनाथ पर कमठ का उपसर्ग, आदि तीर्थंकर ऋषभमुनि को एक वर्ष तक आहार में अन्तराय इस बात के साक्षी हैं कि तीर्थंकर जैसे पुण्य-पुराण पुरुषों को भी अपने किए पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना ही पड़ा था। ____ अतः हमें इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखने की जरूरत है कि भूल-चूक से भी, जाने-अनजाने में भी हम किसी के प्राण पीड़ित न करें। अपने जरा से स्वाद के लिए हिंसा से उत्पन्न आहार ग्रहण न करें अपनी पूरी दिनचर्या में अहिंसक आचरण ही करें। अन्यथा जब उपर्युक्त पौराणिक पुरुषों की यह दशा हुई है तो हमारा कहना ही क्या ? N |Etv 080p 5 7
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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