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________________ ग्रहण करता है। जैसे गौ शब्द के वचन आदि अनेक अर्थ हैं, परंतु समभिरूढ़नय मस्त (पथ) के अर्थ में ॥ ही ग्रहण है। | एवंभूतनय :- जो पदार्थ, जिस क्षण, जैसी क्रिया करता है, उसी क्षण में उसको उस रूप कहना, अन्य क्षण में नहीं - यह एवंभूतनय है। यह नय पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को कहता है। जैसे - पूजा करते समय ही व्यक्ति को पुजारी कहना और यात्रा करते समय यात्री। द्रव्य की अनन्त शक्तियाँ हैं। ये सातों नय प्रत्येक शक्ति के भेदों को स्वीकृत करते हुए उत्तरोत्तर सूक्ष्म पदार्थों को ग्रहण करते हैं। इन नयों में नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र - ये चार नय अर्थप्रधान हैं, अतः इन्हें अर्थनय कहते हैं और शेष तीन नय शब्दप्रधान है, अतः उन्हें शब्दनय कहते हैं। ये सब भेद बहुत स्थूल हैं। वस्तुतः तो जितने वचन विकल्प होते हैं, उतने ही नय हैं, अतः नयों की कोई संख्या निश्चित नहीं है। ___ हे प्रभो ! निश्चय-व्यवहार भी तो नय हैं, अध्यात्म के विवेचन में तो ये ही नय बार-बार आते हैं, अत: इन्हें भी संक्षेप में बतायें ! ___ हाँ, हाँ, सुनो ! वस्तुत: तो निश्चयनय एक ही है, परन्तु प्रयोजनवश इसके चार भेद किये गये हैं। मूल में तो दो भेद ही किए हैं। एक - शुद्धनिश्चयनय, दूसरा - अशुद्धनिश्चयनय । पुनः शुद्ध निश्चयनय के तीन भेद किए। १. परमशुद्धनिश्चयनय २. साक्षातशुद्धनिश्चयनय ३. एकदेशशुद्धनिश्चयनय । इसप्रकार इसके निम्नांकित चार भेद हो गये। (क) परमशुद्धनिश्चयनय - इसका विषय पर व पर्याय से रहित अभेद-अखण्ड नित्य वस्तु है। अतः | इसका कोई भेद नहीं होता। इस नय की विषयवस्तु ही दृष्टि का विषय है। (ख) साक्षात्शुद्धनिश्चयनय - यह नय आत्मा को क्षायिक भावों से (केवलज्ञानादि से) सहित बताता ॥२५
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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