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________________ संसार के स्वार्थ को जानकर वैराग्य धारण किया और आर्यिका के व्रत अंगीकार कर आत्मसाधना हेतु कठिन || तप करने लगी।" | "ये स्त्रियाँ स्त्री पर्याय में तीनप्रकार की पराधीनता के कारण नाना दुःख उठाती हैं। बचपन में पिता के आधीन, युवावस्था में पति के आधीन और बुढ़ापे में पुत्र के आधीन रहती हैं और पराधीनता में स्वप्न में भी सुख नहीं है। कहा भी है - "पराधीन सपनेहु सुख नाहीं" यदि पति या पुत्र दुर्बल हुआ, बीमार हुआ, अल्प आयु हुआ, मूर्ख हुआ, दुष्ट हुआ तो अनन्त दुःख । यदि सौत हुई तो उसका दुःख, यदि स्वयं बंध्या हुई, मृत संतान हुई...... और न जाने कितने दुःख नारियों के होते हैं। अतः ऐसी दुःखद स्त्री पर्याय में न जाना हो, इस पर्याय से सदा के लिए मुक्त होना हो तो मायाचार, छलकपट का भाव और व्यवहार छोड़े तथा सम्यग्दर्शन की आराधना करें - यही राह राजमती चली। हम देखते हैं कि तत्त्वज्ञान के बिना संसार में कोई सुखी नहीं है, अज्ञानी न तो समाधि से जी सकता है और न समाधि-मरण पूर्वक मर ही सकता है। अतः हमें आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत कतिपय प्रमुख सिद्धान्तों को समझना अति आवश्यक है। भाग्य से अधिक और समय से पहले, किसी को कभी कुछ नहीं मिलता और दूसरा यह है कि न तो हम किसी के सुख-दुःख के दाता हैं, न भले-बुरे के कर्ता हैं और न कोई हमें भी सुख-दुःख दे सकता है, न हमारा भला-बुरा कर सकता है। राजा सेवक पर कितना भी प्रसन्न क्यों न हो जाये; पर वह सेवक को उसके भाग्य से अधिक धन नहीं दे सकता। दिन-रात पानी क्यों न बरसे, फिर भी ढाक की टहनी में तीन से अधिक पत्ते नहीं निकलते। - सुखी जीवन, पृष्ठ
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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