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________________ । होने से भयभीत हुईं साथ में स्नान करनेवाली सखियाँ जोर-जोर से रोने लगीं। उनके रोने की आवाज समीपवर्ती सैनिक शिविरों में सुनी गई। आवाज सुनकर जाम्बवती के पिता जाम्बव युद्ध की पूरी तैयारी के साथ शीघ्र वहाँ आ पहुँचा; किन्तु वहाँ उपस्थित श्रीकृष्ण के सेनापति ने उसे युद्ध में हराकर बाँध लिया और श्रीकृष्ण के समीप उपस्थित कर दिया। इस घटना से जाम्बव को वैराग्य हो गया। वह अपने पुत्र विश्वसेन को राजपद देकर स्वयं साधु हो गये। जाम्बवती के विवाह से आनन्दित श्रीकृष्ण अपने साले विश्वसेन को साथ लेकर द्वारिका चले गये। रुक्मणी जाम्बवती के आगमन से हर्षित हुई, अत: जाम्बवती का महल रुक्मणी के महल के पास बनवाया। रुक्मणी और जाम्बवती की पारस्परिक प्रीति दिन प्रतिदिन वृद्धिंगत होती गई। इसी क्रम में श्रीकृष्ण ने लक्ष्मणा, सुसीला, गौरी, पद्मावती और गान्धारी के पितृ पक्ष की सेनाओं पर विजय प्राप्त कर इन सबका हरण करके इनके साथ विवाह रचाया और इन सबके मनोरथों को पूरा किया। यह सब जिनधर्म की आराधना से प्राप्त सातिशय पुण्य का ही फल है- ऐसी श्रद्धा से हम भी सदैव धर्म आराधना करें, परमात्मा की उपासना द्वारा पापकर्मों का क्षय करें। यह कैसा विचित्र संयोग है पुण्य-पाप का ? यह रूप लावण्य सचमुच कोई गर्व करने जैसी चीज नहीं है। इतना और ऐसा पुण्य तो पशु-पक्षी भी कमा लेते हैं, फुलवारियों के फूल भी कमा लेते हैं, वे भी देखने में बहुत सुन्दर लगते हैं; पर कितने सुखी हैं वे ? जब पाप का उदय आता है तब परिस्थिति बदलते देर नहीं लगती। जो अपने गौरव के हेतु होते हैं, सुख के निमित्त होते हैं, वे ही गले के फंदे बन जाते हैं। - इन भावों का फल क्या होगा, पृष्ठ-५३,५८
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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