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________________ (१८७ बंधाकर रुक्मणी के भवन में गये। वहाँ रुक्मणी की मानसिक पीड़ा देख स्वयं भी मन ही मन करुणा से ह | दुःखी हो गये, पर उन्होंने अपना दुःख व्यक्त न करके रुक्मणी को समझाया और शीघ्र सुखद समाचार लाने रि की आशा बंधाई । वं hotos 5 श क था रुक्मणी ने नारदजी को जाता देख खड़े होकर उनका विनय एवं उचित आदर सम्मान किया और अपने | पितातुल्य नारद को विदा देते हुए स्वयं को संभाल नहीं पायी उसकी आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी । अत्यन्त चतुर नारद ने उन्हें संबोधते हुए कहा - " हे रुक्मणी ! तू शोक छोड़ ! तेरा पुत्र जहाँ भी है, | जीवित है और सुखी है; क्योंकि वह तेरी कूंख से श्रीकृष्ण जैसे महापुरुष की संतान है और स्वयं भी पुण्यशाली है । पुत्री ! तू इतना तो समझती ही है कि इस संसार में प्राणियों को सुख-दुःख देनेवाले संयोग-वियोग तो | होते ही रहते हैं; परन्तु जो तत्त्वज्ञान के आलम्बन ले कर्मों के शुभाशुभ क्षणिक फलों एवं वस्तुस्वरूप की श्रद्धा रखते हैं, उन्हें ऐसी स्थिति में तत्त्वज्ञान को ही बारम्बार स्मरण करके धैर्य धरना चाहिए। यही तो धर्म रु का लाभ है, अन्यथा कोरा शास्त्रज्ञान तो बोझा ही है । अत: तू होनहार का विचार कर धैर्य धारण कर !” वैसे भी यादव कुल इतना भाग्यहीन नहीं है, जिसे ऐसे भयंकर संकट आयें, जिन्हें वह झेल न सके। | फिर भी मैं शीघ्र ही तेरे पुत्र का शुभ समाचार लाता हूँ । तू चिन्ता मत कर ! दुखी न हो । ऐसे अमृतमय वचनों से आश्वस्त कर नारदजी सीमन्धरस्वामी के समोशरण में पहुँचे और वहाँ वे नानाप्रकार से स्तुति - वंदना करके राजाओं की सभा में जा बैठे। वहाँ उस समय दीर्घकाय ५०० धनुष ऊँचे पद्मरथ चक्रवर्ती बैठे थे, उन्होंने उनकी तुलना में बहुत छोटे मात्र १० धनुष ऊँचे भरत क्षेत्र के नारद मुनि को साश्चर्य देखा और अपनी हथेली पर रखकर सीमन्धरस्वामी “हे प्रभु ! यह मनुष्याकार कीड़ा कौन है ? और यहाँ इस मनुष्यों की सभा में क्यों आया है ?" से पूछा समोशरण का यह भी एक अतिशय है कि - तीर्थंकर द्वारा किसी के प्रश्नों के सीधे उत्तर दिए बिना ही शंकाकार की शंकाओं का पूरा समाधान सहज ही स्वत: हो जाता है । समोशरण में उपस्थित श्रोताओं - क्म णी के ss no 5 पु त्र का र ण १९
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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