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________________ राजा वसुदेव राजपुत्रों को शस्त्र विद्या का उपदेश देते हुए सूर्यपुर में रहने लगे। एक दिन वसुदेव धनुर्विद्या में प्रवीण कंस आदि शिष्यों के साथ राजा जरासंध को देखने को राजगृह नगर में आये। उसी समय राजा जरासंध ने अनेक आगंतुक मेहमान राजाओं के सामने एक घोषणा की, जिसे वसुदेव ने भी सुना । घोषणा में कहा गया कि - "सिंहपुर का स्वामी राजा सिंहरथ बड़ा पराक्रमी है। वह सच्चे सिंहों के रथ पर सवारी करता है। जो उसे जीवित पकड़कर लायेगा, वही शूरवीर समझा जायेगा। उसे ही मैं सम्मानित करके अपनी सर्वगुणसम्पन्न कन्या जीवद्यशा को एवं राज्य का कुछ हिस्सा प्रदान करूँगा।" उस हृदयग्राही घोषणा को सुनकर वीर रस में पगे वसुदेव ने कंस नामक शिष्य से प्रतिज्ञारूप पताका उठवायी । तदनन्तर वसुदेव अपने शिष्य कंस के साथ विद्यानिर्मित सिंहरथ पर सवार होकर सिंहपुर गये । वहाँ जब सिंहरथ सिंहों के रथ पर बैठकर युद्ध के लिए वसुदेव के सामने आया, तब उन्होंने बाणों द्वारा उसके सिंहों की रास काट दी, जिससे उसके सिंह भाग गये और कंस ने उसीसमय कुमार की आज्ञा से राजा सिंहस्थ को बांध लिया। कंस की चतुराई देखकर वसुदेव ने कंस से कहा - "मैं तुम्हारी धनुर्विद्या की चतुराई से प्रसन्न हूँ। जो चाहो वर माँगो।" कंस ने अभी वर अमानत के रूप में कुमार के पास ही रख दिया। वसुदेव ने सिंहस्थ को जरासंध के समक्ष प्रस्तुत कर दिया । शत्रु को सामने देख जरासंध संतुष्ट हुआ और वसुदेव से बोला “तुम मेरी घोषणानुसार मेरी प्रिय पुत्री जीवद्यशा के साथ विवाह करो।" __ वसुदेव ने कहा - “शत्रु को कंस ने पकड़ा है मैंने नहीं, अत: तुम अपनी पुत्री कंस को दो। राजा जरासंध ने कंस की जाति की तलाश की तो खोज करते-करते अन्ततोगत्वा पता चला कि वह ॥ १२
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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