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________________ एक दिन वीर वसुदेव अटवी में भ्रमण करते हुए अचानक एक तपस्वियों के आश्रम में पहुँच गये। वहाँ | उन्होंने तपस्वियों को राजकथा और युद्धकथा के रूप में विकथायें करते देखा, जो तपस्वियों के योग्य कार्य नहीं था। उन्होंने ये सोचा -"विकथाओं से संतों को क्या-प्रयोजन? तपस्वियों को तो मात्र धर्मकथायें या धर्मध्यान ही करना चाहिए।" ___कुमार वसुदेव ने आश्चर्यचकित होकर उनसे पूछा - "अरे, तपिस्वयो! आप लोग इसतरह विकथाओं में आसक्त क्यों हो? तापस तो वे कहलाते हैं जो केवल तप और संयम की साधना करें, आत्मा-परमात्मा की आराधना करें तथा तत्त्वचर्चा करें, वीतराग कथा करें। तपस्वियों को पापबन्ध करनेवाली सांसारिक बातों से क्या प्रयोजन ?" कुमार वसुदेव का तपस्वियों से ऐसा कहना छोटे मुँह बड़ी बात नहीं थी, क्योंकि यदि राजा प्रजा में कहीं कोई अनुचित कार्य देखे और वह चुप रहे तो यह भी उचित नहीं हैं, गलती करना और गलती को अनदेखा करना - दोनों बराबर के अपराध हैं। अतः कुमार वसुदेव ने ठीक ही किया। तपस्वियों ने भी अपनी कमी का अहसास करते हुए कुमार वसुदेव को यथायोग्य अभिवादन करके कहा- “हमलोग अभी नवीन दीक्षित ही हैं, हमें अभी तापसियों के कर्त्तव्यों का कुछ भी ज्ञान नहीं है। अभी हम यह भी नहीं जानते कि तापस्वियों की वृत्ति कैसी होना चाहिए?" अपने तापसियों का वेष धारण करने की घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा – “इसी श्रीवास्ती नगरी में यशस्वी एवं पुरुषार्थी 'एणीपुत्र' नाम का एक राजा है। उसकी प्रियंगुसुन्दरी नामक एक अत्यन्त सुन्दर कन्या है। उसके स्वयंवर के लिए एणीपुत्र राजा ने हम सब राजाओं को बुलाया; परन्तु कारणवश उस कन्या | ने हम लोगों में से किसी को भी पति के रूप में नहीं चुना । जिन्होंने अपमान महसूस किया, उन्होंने तो एणीपुत्र FE 3 SEN FRE
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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