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________________ ११३|| ही रही। इसकारण वह मरकर व्याघ्री हुई, सेठानी ने बदले की भावना से व्याघ्री बनकर अपने पति को || ह || ही खाया। यह राजा सिंहसेन की कथा किसी और की नहीं, अपनी ही कहानी है। राजा सिंहसेन का जीव तो हाथी की पर्याय में ही जैनधर्म की शरण प्राप्त कर वैर रहित हो गया था और उसके फलस्वरूप पाँचवें भव में 'संजयन्त' पर्याय से संसार से मुक्त हो गया और तू धरणेन्द्र (नागेन्द्र) होकर भी इसप्रकार तुच्छ वैरभाव को धारण कर संसार में परिभ्रमण कर रहा है। | हे धरणेन्द्र ! इसप्रकार वैर-भाव को घोर संसार का बढ़ाने वाला जानकर तू भी शत्रुता के भाव छोड़ दे और इन सब राग-द्वेष के मूलकारण मिथ्यात्व अर्थात् सातों तत्त्वों की भूलों एवं देव-शास्त्र-गुरु सम्बन्धी भूलों का भी त्याग कर दे। वस्तुत: जगत में कोई भी वस्तु भली-बुरी नहीं है, इष्टानिष्ट की कल्पना ही मिथ्या है और यह मिथ्यात्व ही इस जीव का सबसे बड़ा शत्रु है। धरणेन्द्र ने पूछा - हे लान्तवेन्द्र ! आपने मुझे - उद्बोधन दिया - इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। अब कृपा करके यह बतायें कि - यह मिथ्यात्व कौन है ? कहाँ रहता है? तुम मुझे उसका पता/ठिकाना बताओ और यह भी बताओ कि उसकी क्या पहचान है? उसका पता लगते ही, उसकी सही-सही पहचान होते ही मैं सबसे पहले उसका ही सर्वनाश करूँगा। ___ लान्तवेन्द्र ने कहा - मिथ्यात्व कोई ऐसा अपराधी या विरोधी व्यक्ति नहीं है, जिसका कोई पताठिकाना हो, जो कहीं शहर या गाँव में रहता हो। ऐसा शत्रु नहीं है, जिसका अस्त्रों-शस्त्रों से नाश किया जा सके। मिथ्यात्व तो अपना ही मिथ्याभाव है। सच्चे वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु एवं जीव-अजीव, आस्रव, बंध आदि सात तत्त्वों के विषय में उल्टी मान्यता, विपरीत अभिप्राय होना, परद्रव्यों में एकत्व-ममत्व एवं कर्तृत्व की मान्यता का होना, मिथ्यात्व है तथा पर पदार्थों में इष्टानिष्ट बुद्धि मिथ्यात्व का फल है। ऐसे मिथ्या
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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