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________________ - भले ही आपके साथ वियोग रहे, आपके दर्शन तो पाती रहँगी। इसी विचार से मैंने यहाँ अलक्षित रूप से रहना चाहा; परंतु त्रिशिखर की भार्या शूर्पणखी मदनवेगा का रूप धरकर आपको मारने की खोटी नियत से आकाश में ले गई। जब आप उसके द्वारा पर्वत की चोटी से नीचे गिराये जा रहे थे कि मैंने बीच में ही | आपको झेल लिया।" इसप्रकार वेगवती से अपने ऊपर घटित घटना जानकर वसुदेव कुछ समय के लिए वेगवती के साथ ही सुख से रहे। एक दिन वसुदेव ने नागपाश से बंधी हुई एक सुन्दर कन्या को देखा। उसे बन्धन में देख उनका हृदय दया से द्रवित हो गया और उन्होंने उसे बन्धन से मुक्त कर दिया। बन्धन से छूटते ही उस कन्या ने वसुदेव को नमस्कार किया और कहा कि - हे नाथ ! आपके प्रसाद से मेरी विद्या सिद्ध हो गई। मैं दक्षिण श्रेणी पर स्थित गगनवल्लभ नगर की रहनेवाली राजकन्या हूँ। मेरा नाम बालचन्द्रा है और मैं विद्युद्रष्ट्र के वंश में उत्पन्न हुई हूँ। मैं नदी में बैठकर विद्या सिद्ध कर रही थी कि एक शत्रु विद्याधर ने मुझे नागपाश में बांध दिया और आपने मुझे उस बन्धन से मुक्त किया है। हमारे वंश में पहले भी एक केतुमती कन्या हो गई है, उसे भी मेरे ही समान पुण्डरीक नामक अर्द्धचक्री ने अचानक आकर बन्धन से मुक्त किया था। वह जिसप्रकार निर्विरोध रूप से उस अर्द्धचक्री की पत्नी हो गई थी, उसी प्रकार मैं भी निश्चित रूप से आपकी पत्नी होनेवाली हूँ। हे नाथ ! आप विद्याधरों के लिए अति दुर्लभ इस विद्या को ग्रहण कीजिए।" कन्या के इसप्रकार कहने पर कुमार वसुदेव ने कहा - "मेरी इच्छा है कि तुम वह विद्या वेगवती को दे दो।" ___ कुमार वसुदेव की आज्ञा पाकर उसने 'तथास्तु' कह - वेगवती के लिए वह विद्या दे दी और आकाश में उड़कर गगनवल्लभ नगर को चली गई। आचार्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने सत्कर्म करके पुण्यार्जन किया है, उसके ही लौकिक-पारलौकिक मनोरथ पूर्ण होते हैं। अतः जिनशासन के अनुसार सभी को सदाचारी जीवन जीते हुए वीतराग धर्म की आराधना करना ही चाहिए। OF RAF 0 +
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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