SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बाहर निकले। त्रिशिखर और वसुदेव के मध्य भयंकर युद्ध हुआ । युद्धस्थल में धीरता और शूरवीरता से वसुदेव चतुरंग सेना के साथ बहुत काल तक युद्ध करते रहे । युद्ध करते-करते जब त्रिशिखर स्वयं वसुदेव के सामने | आया तो सभी तरह के अस्त्र-शस्त्रों से भयंकर युद्ध हुआ। अन्ततः त्रिशिखर के प्राणान्त होते ही समस्त सेना | भाग गई और वसुदेव कारागृह से अपने स्वसुर विद्युत्वेग को छुड़ाकर अपने नगर वापिस आ गये। कुमार वसुदेव और मदनवेगा से कामदेव के समान सुन्दर अनावृष्टि नामक नीतिज्ञ और बलवान पुत्र उत्पन्न | हुआ। एक दिन अपनी-अपनी पत्नियों के साथ अनेक विद्याधर सिद्धकूट जिनालय की वन्दना करने के लिए गये, उनके साथ कुमार वसुदेव भी मदनवेगा के साथ वहाँ पहुँचे । वन्दनार्थ गये विद्याधर जिनेन्द्र भगवान की पूजा तथा प्रतिमागृहों की वन्दना कर यथायोग्य स्थान बैठ गये । विद्युद्वेग भी भगवान की पूजा कर अपने निकाय के लोगों के साथ बैठ गया। तदनन्तर वसुदेव ने मदनवेगा से विद्याधर निकायों का परिचय पूछा और मदनवेगा एक-एक स्तम्भ के सहारे बैठे अनेक विद्याधर निकायों का संक्षिप्त परिचय कराते हुए यथास्थान बैठ गई। ___ एक दिन कुमार वसुदेव ने किसी कारणवश मदनवेगा से 'आओ वेगवती !' कह दिया। इससे मदनवेगा रुष्ट होकर घर के अन्दर चली गई। उसी समय त्रिशिखर विद्याधर की विधवा पत्नी शूर्पणखी मदनवेगा का रूप धरकर तथा अपनी प्रभा से महलों को एकदम प्रज्वलित कर छल से वसुदेव को हर ले गई। वह उसे आकाश से नीचे गिराना ही चाहती थी कि नीचे आकाश में अकस्मात आता हुआ - कुमार वसुदेव का वैरी मानसवेग विद्याधर उसे दिखा । अत: वह कुमार को मार डालने हेतु मानसवेग को सौंपकर चली गई। मानसवेग ने कुमार को आकाश से छोड़ा तो वे नीचे एक घास के ढेर पर गिर गये। वहाँ के मनुष्यों द्वारा जरासंघ के यश को सुनकर कुमार समझ गये कि यह राजगृह नगर है। अतः उन्होंने संतोष की सांस ली और वे नगर में चले गये। राजगृह नगर में कुमार ने पुण्ययोग से सहज प्राप्त एक करोड़ सुवर्ण मुद्राओं को दीनदुखी जीवों में वितरित करके 'दानशील' होने का यश प्राप्त किया। निमित्त ज्ञानियों ने जरासंघ को बताया था कि जो आपके नगर से ही एक करोड़ सुवर्ण मुद्रायें प्राप्त कर |७ चान बठगई। FEEP TE
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy