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________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा को पोषक आ. सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के हृदयोद्गार * अध्यात्म संदेश से यदि कोई ऐसा माने कि विषय-कषाय के भाव जरा भी हों, वहाँ सम्यग्ज्ञान हो ही नहीं सकता तो वह ठीक नहीं है अथवा विषयकषायों के परिणाम सर्वथा छूटकर वीतराग हो जायें, तब ही सम्यग्ज्ञान हो सके - ऐसा कोई कहे तो वह भी ठीक नहीं है। हाँ, इतना अवश्य है कि ज्ञानी को विषय-कषाय का रस अन्तर में से सर्वथा हट जाता है, उनमें कहीं अंशमात्र भी आत्मा का हित या सुख लगता नहीं; अतएव वह स्वच्छंदता से कभी भी वर्तन नहीं वर्तता । वह 'सदननिवासी तदपि उदासी' होता है। इसप्रकार धर्मी को सम्यग्ज्ञान के साथ-साथ शुभ-अशुभ परिणाम तो रहते है; परन्तु इससे उसके सम्यक् श्रद्धा-ज्ञान दूषित नहीं हो जाते। ज्ञान परिणाम अलग है और शुभाशुभ परिणाम अलग हैं, दोनों की धारा अलग-अलग हैं। विकल्प एवं ज्ञान की भिन्नता का भान उसको विकल्प के समय भी बना रहता है। उपयोग भले ही पर को जानने में वर्त रहा हो; इससे कहीं उसके श्रद्धा या ज्ञान मिथ्या नहीं हो जाते । इसप्रकार धर्मी को सविकल्पदशा के समय भी सम्यक्त्व की धारा जैसी की तैसी बनी ही रहती है। सविकल्पदशा में अर्थात् उपयोग जब कहीं अन्यत्र हो, तब भी सम्यक्त्व वर्तता है। • सम्यग्दृष्टि की अंतरंग दशा - शुभाशुभपरिणाम के समय में भी धर्मात्मा को शुद्धात्मश्रद्धानरूप ज्ञानधारा-कर्मधारा को पोषक गुरुदेवश्री के हृदयोद्गार निश्चयसम्यक्त्व रहता है - यह बात यहाँ दृष्टान्त देकर समझायी है। श्रद्धा में तो कोई सविकल्प या निर्विकल्प - ऐसा भेद नहीं है। अशुभरागरूप सविकल्पदशा हो या शुभरागरूप सविकल्पदशा, सम्यक्त्व तो इन दोनों से पार शुद्धात्मा के श्रद्धानरूप ही वर्तता है। सम्यग्दृष्टि को स्वानुभव में उपयोग हो या बाहर के शुभ-अशुभ में उपयोग घूमता हो, परन्तु दोनों ही वक्त उसके सम्यग्दर्शन तो एक ही प्रकार वर्तता है। फिर भी इससे ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए कि सम्यग्दृष्टि अपने उपयोग को चाहे जैसे बाहर में भ्रमाते रहते होंगे। उसने स्वानुभव में जिस आनन्द का स्वाद चखा है, उसी में बारबार प्रयत्न भी करता है; क्योंकि श्रद्धा वैसी की वैसी रहने पर भी स्वानुभवरूप उपयोग के समय निर्विकल्पदशा में अतीन्द्रिय आनन्द का जो विशेष वेदन होता है, वैसा सविकल्पदशा में नहीं होता; परन्तु जब ऐसी निर्विकल्पदशा नहीं रहती, तब शुभ वा अशुभ में भी धर्मी का उपयोग लगता है, तो भी ऐसा नहीं है कि जब अशुभ में उपयोग लगे, तब सम्यक्त्व में कुछ मलिनता हो जाये। इन्द्रिय की ओर उपयोग लगा हो, उस समय का सम्यक्त्व जुदा तथा अतीन्द्रिय उपयोग हो, उस समय का सम्यक्त्व जुदा - ऐसे भी दो भेद सम्यग्दर्शन में नहीं हैं। प्रत्यक्ष-परोक्ष ऐसे भेद भी उपयोग में हैं; सम्यग्दर्शन में नहीं; सम्यग्दर्शन तो शुद्धात्मा के श्रद्धानरूप ही है। शुभ-अशुभ के समय भी उस श्रद्धान का सातत्यपना समझाने को यहाँ साहूकार अर्थात् प्रामाणिक गुमाश्ते का दृष्टान्त दिया है। ___जैसे प्रामाणिक मुनीम अपने सेठ के सभी कार्यों को मानो अपने ही कार्य हों - ऐसे करता है, व्यापार में लाभ-नुकसान होने पर हर्ष-खेद भी करता है; यह हमारी दुकान, यह हमारा माल - ऐसा भी कहता है; इसप्रकार सेठ के कार्य में परिणाम लगाने पर भी भीतर में वह समझता 43
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
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