SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा कर्मधारा कहते हैं। यहाँ शुभाशुभ रागादि भावरूप कर्मधारा अपने कारण है और अन्तर में जितनी ज्ञान-शक्ति निर्मल हुई है, उतनी ज्ञानधारा स्वयं अपने कारण से है - इसप्रकार इन दोनों धाराओं को मिश्रधारा कहा है। ज्ञान में जितनी कमी है, वह ज्ञानशक्ति (केवलज्ञान) पूर्ण रूप से प्रकट नहीं हुई, इसलिए है, कर्मादि के कारण नहीं । क्षायिक सम्यग्दर्शन है; परन्तु केवलज्ञान नहीं है - यही दो धाराओं को सिद्ध करता है। इसप्रकार ज्ञान और सम्यग्दर्शन को रखकर बात की है। ज्ञानगुण का स्वरूप कहने के पश्चात् अब जीव की दर्शनशक्ति भी अदर्शनरूप है, उसका स्वरूप कहते हैं। यहाँ सामान्य उपयोगरूप दर्शनशक्ति की बात है, सम्यग्दर्शन की बात नहीं; क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन में तो पूर्ण निर्मलदशा है। उससमय सामान्य उपयोगरूप दर्शनशक्ति पूर्ण नहीं और पूर्ण निर्मल भी नहीं; अतः जितनी अपूर्णता है, उतनी अदर्शनरूप ही है। इसीप्रकार चारित्रगुण की कुछ शक्ति चारित्ररूप है तथा कुछ शक्ति विकाररूप है। वहाँ चारित्रगुण की विकाररूप पर्याय अपने कारण से है, कर्म के कारण नहीं; इसलिये वहाँ भी मिश्रदशारूप ही धर्म है। भेदज्ञानपूर्वक आत्मा में स्व के अवलम्बन से जो धर्म प्रकट होता है, वही अनुभवप्रकाश है। उससमय चारित्रगुण की मिश्रदशा होने के कारण आंशिक निर्मलता और आंशिक मलिनता है; किन्तु वह मलिनता कर्म के कारण नहीं है। जिसको 'मैं निमित्तादिक से भिन्न हैं', 'मैं विकल्पादि से रहित हैं' - ऐसा भान नहीं तथा आत्मज्ञान होने पर भी पूर्णदशा प्रकट नहीं हुई है, उसके ज्ञान, चारित्र आदि गुणों की शक्ति अप्रकटरूप हैं। यद्यपि श्रद्धागुण मिश्रधर्म अधिकार पर गुरुदेवश्री के प्रवचन पूर्ण प्रकट है, किन्तु अन्य गुण पूर्ण नहीं होने से मिश्रभाव है। आत्मा के जितने गुण निर्मल हुए हैं, उतने शुद्ध हैं और जितना विकार जिन-जिन गुणों में है, उतनी अशुद्धता है; सम्यग्दर्शन होने पर भी अनुभव पूर्ण नहीं होता । यद्यपि निचलीदशा में मिश्रभावरूप धर्म है, तथापि प्रतीतिरूप धर्म में श्रद्धाभाव ही सर्वशुद्ध है। ____ आत्मा को निमित्त और रागादि से पृथक् करके स्वभाव में एकत्वरूप श्रद्धाभाव हुआ है; परन्तु अन्य गुणों की जितनी अपूर्णता है, उतनी कचास है । यह भाव आवरण ही मिश्रधर्म है। ___ इसमें स्व-संवेदन है, परन्तु प्रत्यक्ष-संवेदन नहीं । आत्मा का अनुभव तो है, परन्तु पर्याय को प्रत्यक्ष जाने - ऐसा पूर्ण ज्ञान नहीं। जब वह ज्ञान सर्वथा आवरण रहित होवे, तब सर्वप्रत्यक्ष होता है और सर्व कर्म अंश के दूर होते ही वह शुद्ध होता है। वहाँ अघातिकर्म विद्यमान होने पर भी केवलज्ञान शुद्ध है; क्योंकि घातिकर्म के नाश से वे सकल परमात्मा हुए हैं, उन्हें सर्व प्रत्यक्षज्ञान प्रकट हुआ है, अब वहाँ मिश्रभाव नहीं है। जो सम्यग्दृष्टि दो घड़ी में केवलज्ञान प्रकट करता है, उसे भी अन्तर्मुहूर्त तक मिश्रभाव अवश्य ही रहता है और जब वह उसका नाश करता है, तब ही उसके सकल परमात्मपना प्रकट होता है। वहाँ सकल परमात्मा अर्थात् शरीरसहित परमात्मा अरहंत भगवान हैं तथा निकल परमात्मा सिद्ध भगवान हैं। प्रश्न :- अन्तरात्मा के ज्ञानधारा और रागधारा दोनों ही हैं - ऐसा जो कहा, इसमें प्रश्न यह है कि बारहवें गुणस्थान में दो धारायें हैं या मात्र एक ज्ञानधारा ही है ? यदि अकेली ज्ञानधारा ही है तो उसे अन्तरात्मा मत कहो तथा यदि दोनों धारायें हैं - ऐसा कहें तो बारहवें गुणस्थान में 41
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy