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________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा अंश है। शुभयोग में भी निर्मल चारित्र का अंश शुद्ध है - ऐसा विचार कर उसमें स्थिरता करने से यथाख्यातचारित्र होगा। ६० अहाहा ! यह चारित्र गुण के एक पर्याय की पूर्णता है, वह अन्य गुण के कारण नहीं, यह यहाँ सिद्ध किया है। सम्यग्ज्ञान की पर्याय का अंश पूर्ण निर्मल है, इसकारण चारित्रगुण की पर्याय पूर्ण निर्मल है - ऐसा नहीं, अपितु चारित्र का जो एक अंश निर्मल है, उसके कारण पूर्ण यथाख्यातचारित्र प्रकट होता है यह सिद्ध किया है। यद्यपि सम्यग्दृष्टि पुरुष क्रिया से पूर्णतः विरक्त है। उसे चारित्रमोह कर्म का बलात् उदय है। जो उदय हुआ, उसमें सम्यग्दृष्टि की रुचि नहीं है । वहाँ उसे आकुलता रूप शुभभाव तो है, किन्तु उसकी रुचि नहीं है। 'बलात्' का अर्थ चारित्रमोह कर्म के उदयरूप अशुद्धता है - ऐसा नहीं, अपितु रुचि नहीं है, अत: कमजोरीवश अशुद्धता है यह ग्रहण करना । ....तत् एकं ज्ञानं मोक्षाय स्थितम् - पूर्वोक्त एक ज्ञान अर्थात् एक शुद्ध चैतन्यप्रकाश ही ज्ञानावरणादि कर्मक्षय का कारण है। अहाहा ! शुद्ध भगवान आत्मा जिसके आश्रय से निज पर्याय में सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप निर्मलता प्रगट हुई है - ऐसा वह चैतन्य प्रकाश ही कर्मक्षय में निमित्त है। चैतन्यप्रकाश कर्मक्षय नहीं करता। कर्म का क्षय तो कर्म के कारण होता है। कर्मक्षय भी स्वतः अपनी योग्यता से होता है, उसका कर्त्ता आत्मा नहीं है। कर्मक्षय में तो कर्म की पर्याय बदलकर अकर्मरूप परिणमित हुई है; जिसमें निमित्त चैतन्यप्रकाश है। '.. भावार्थ इसप्रकार है- एक जीव में शुद्धपना और अशुद्धपना एक ही काल में है, परन्तु जितने अंशप्रमाण शुद्धपना है, उतने अंश में कर्मक्षपना है और जितने अंश में अशुद्धपना है, उतने अंश में कर्मबन्ध है। एक समय और एक ही काल में दोनों कार्य हो रहे हैं। 'एव' ऐसा ही " 31 बालबोधिनी टीका पर गुरुदेव श्री के प्रवचन है, इसमें सन्देह नहीं करना । किन्हीं स्थानों पर सम्यग्दृष्टि को दुःख अथवा कषाय नहीं हैं आदि कथन प्राप्त होते है; किन्तु यह सब बातें विभिन्न अपेक्षाओं से हैं। ६१ मुनिराज को भी जितने अंश में पाँच महाव्रतादि के विकल्प हैं, उतने अंश में दुःख और दुःख का वेदन दोनों ही हैं। दुःख का वेदन अथवा कषाय आदि नहीं हैं, इत्यादि जो बातें कही जाती हैं, वहाँ उन जीवों को आनन्द के वेदन की मुख्यता हैं, अतः दुःख को गौण करके आनन्द की मुख्यता से उक्त कथन किया हैं । जहाँ जो अपेक्षा उचित हो, वहाँ उस बात को उसी अपेक्षा समझना चाहिये । तथापि ज्ञानपर्याय में जो जाननपना होता है, उस अपेक्षा कहें तो जितने अंश में आत्मा का आश्रय हुआ है उतना सुख है और जितने अंश में अशुद्धता है, उतना दुःख साधक जीव को विद्यमान है। इसप्रकार एक ही समय में सुख तथा दुःख दोनों का ही वेदन होता हैं, अतः ज्ञानी को जितनी अशुद्धता है, उतना दुःख और बंध है। समयसार में ज्ञानी के भोगों को निर्जरा का कारण कहा, वह दृष्टि की प्रबलता से किया गया कथन है। वहाँ आश्रय अपने निज भगवान आत्मा का है। उस जीव को भोगरूप परिणाम आने पर भी वह भोग का स्वामी नहीं है, उसके अल्प स्थिति व अल्प बंध है, इसकारण बंध नहीं - ऐसा कहा जाता है; किन्तु इसका आशय सर्वथा बंध नहीं है - ऐसा नहीं, अपितु कुछ प्रमाण में बंध अवश्य है। 'कैसा है शुद्ध ज्ञान ? 'परमं स्वतः विमुक्तं ' सर्वोत्कृष्ट - पूज्य और स्वत: मुक्त है । तीन काल में समस्त परद्रव्य और राग से भिन्न वर्तमान जो शुद्ध परिणति है, वह पूज्य है, सर्वोत्कृष्ट है और स्वयं विमुक्त है; अत: मात्र शुद्ध परिणति के कारण मोक्ष होता है और राग के कारण बंध होता है, यह विशेष जानना । इसप्रकार निजात्मा के आश्रय से प्रकट हुई, शुद्धता
SR No.008351
Book TitleGyandhara Karmadhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra V Rathi
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size407 KB
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