SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान विवेचन यदि कर्मों की निर्जरा अनंतगुणी होगी तो अल्पकाल में ही मुनिराज के आठों कर्मों का क्षय हो जायगा और मुक्ति भी हो जायेगी। इसका अर्थ सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान के कुछ समयों में ही आठों कर्म निकल जायेंगे । यदि अल्पकाल में ही मुनिराज सिद्ध भगवान हो जायेंगे तो गुणस्थान मात्र सात ही रहेंगे। तेरहवें गुणस्थान अरहंत अवस्था में होनेवाले विहार, दिव्यध्वनि से होनेवाला उपदेश आदि के लिये अवकाश ही नहीं रहेगा; सर्वज्ञ कथित व्यवस्था ही बिगड़ जायेगी। १८८ इससे दो द्रव्यों के परिणमन की स्वतंत्रता स्वयमेव स्पष्ट हो ही जाती है। जीव द्रव्य में प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनंतगुणी विशुद्धता की वृद्धि हो रही है; वह अपनी स्वतंत्र योग्यता (उपादान) से और उसी समय विशुद्धता का निमित्त पाकर सत्ता में पड़े हुए कर्मपरिणत कार्माण वर्गणारूप पुद्गलस्कंधों की असंख्यातगुणी निर्जरारूप कार्य स्वयमेव हो रहा है, वह भी पुद्गल की अपनी स्वतंत्र योग्यता से I किसी का परिणमन किसी के आधीन नहीं है। जीवादि सर्व अनंतानंत द्रव्यों का परिणमन अपने-अपने में पूर्ण स्वतंत्र एवं स्वाधीन है। ५. गुणसंक्रमण अर्थात् अनेक अशुभ प्रकृतियाँ शुभ प्रकृतियों में बदल जाती हैं। ८१. प्रश्न : संक्रमण किसे कहते हैं ? उत्तर : विवक्षित कर्म प्रकृतियों के परमाणुओं का सजातीय अन्य प्रकृतिरूप परिणमन होने को संक्रमण कहते हैं। जैसे जीव के विशुद्ध परिणामों के निमित्त से पूर्वबद्ध असाता वेद प्रकृति के परमाणुओं का सातावेदनीय के रूप में परिणमित होना । इसमें भी इतनी विशेषता है कि १. मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता । २. चारों आयु कर्मों में आपस में संक्रमण नहीं होता । ३. मोहनीय कर्म का उत्तर भेद दर्शनमोहनीय का चारित्रमोहनीय कर्म में संक्रमण नहीं होता । ४. दर्शनमोहनीय के भेदों में एवं चारित्रमोहनीयकर्म के भेदों में परस्पर संक्रमण होता है। अपूर्वकरण गुणस्थान १८९ इस प्रकरण में रहस्यमय बात यह है कि जीव के मोह-राग-द्वेष भावों के निमित्त से पूर्वबद्ध कर्म बिना बदले जैसे के तैसे ही सत्ता में बने रहें और उसीरूप से उदय में आकर जीव को फल दें; ऐसा नियम नहीं है । जीव के परिणामानुसार सत्ता के कर्मों में परिवर्तन स्वयमेव होता ही रहता है; क्योंकि जीव के परिणाम सतत बदलते रहते हैं । अतः पूर्वबद्ध पाप कर्मों की चिंता से व्यग्र / आकुलित होने की बिलकुल भी आवश्यकता नहीं है। जैसे - किसी धनवान मनुष्य ने २५ वर्ष पूर्व अत्यंत उत्साह और धर्मभावना से लाखों रुपये जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, ग्रंथ प्रकाशनादि व्यवहार धर्म कार्यों में खर्च किये थे। उसके उस पुण्य परिणाम के अनुसार विशेष पुण्यकर्म का बंध भी उसीसमय स्वयमेव हुआ था। वर्तमानकाल में उसी धनवान मनुष्य के पूर्व काल में बँधे हुए किसी पाप कर्म के उदय से दरिद्रता आ गयी है। अब वह सोच रहा है कि यदि मैं २५ वर्ष पूर्व लाखों रुपये धर्मकार्यों में खर्च नहीं करता तो अच्छा रहता, आज गरीबी नहीं आती। वर्तमानकालीन इस विपरीत चिन्तन अर्थात् अशुभभाव से पूर्वबद्ध पुण्यकर्म प्रथम तो तत्काल क्षीण / हीन हो जाते हैं; फिर यदि अशुभ विचारों की प्रबलता रहेगी तो पुण्यकर्म संक्रमित होकर पापकर्मरूप हो जाता है; इसे संक्रमण कहते हैं। इसीप्रकार पाप का संक्रमण पुण्य में भी हो जाता है। ६. भिन्न-भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान ही होते हैं। जैसे:- अधः प्रवृत्तकरण में भिन्न-भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम समान भी हो सकते हैं; किन्तु इस अपूर्वकरण गुणस्थान में परिणाम समान नहीं होते। अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीवों के भिन्न-भिन्न समयवर्ती के परिणाम उत्तरोत्तर भिन्न-भिन्न ही होते हैं और समान समयवर्ती जीवों के परिणाम समान भी होते हैं और असमान भी होते हैं।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy