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________________ अपूर्वकरण गुणस्थान ___१८१ गुणस्थान विवेचन ७५. प्रश्न : आपने ऊपर ७३वें प्रश्न के उत्तर में कहा - "कर्मों की अपनी-अपनी योग्यतानुसार उपशमादिक कार्य होते हैं" इसका अर्थ क्या है ? उत्तर : पुद्गलमय ज्ञानावरणादि आठों ही कर्मों में अचेतनपना समान होने पर भी परिणमन स्वभाव के कारण प्रत्येक कर्म की परिणमन करने की अपनी-अपनी स्वतंत्र योग्यता होती है। विशेष स्पष्टीकरण निम्नानुसार है - १.'क्षयोपशम' तो मात्र ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय - इन चार घाति कर्मों में ही होता है। अन्य चार अघाति कर्मों में नहीं तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय - इन तीनों कर्मों का क्षयोपशम अनादि से निगोद जीवों में भी नियम से पाया जाता है। २. अंतरकरणरूप/प्रशस्त उपशम अनन्तानुबंधी को छोड़कर दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय कर्मों में ही होता है। अन्य सातों कर्मों में नहीं। ३. सदवस्थारूप या अप्रशस्त उपशम मात्र चारों घाति कर्मों में ही होता है, अन्य चारों अघाति कर्मों में नहीं। ४. विसंयोजना मात्र अनंतानुबंधी कषायों की होती है; अन्य किसी भी कर्म में या अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायों की भी नहीं होती। ५. संक्रमण भी सभी कर्मों में नहीं होता। जैसे - आयुकर्म के चारों भेदों का परस्पर में संक्रमण नहीं होता। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयमें भी परस्पर संक्रमण नहीं होता। मूल कर्मों में संक्रमण नहीं होता। सजातीय प्रकृति के उत्तर भेदों में संक्रमण होता है। जैसे - साता का असातावेदनीय में। मिथ्यात्व का मिश्र में और मिश्र का सम्यक्त्व प्रकृति में; अनंतानुबंधी चारों कषायों का १२ कषाय और ९ नोकषायों में; अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण कषायों का अन्य कषायनोकषायों में आदि। ६. आयुकर्म को छोड़कर ज्ञानावरणादि सातों कर्मों का निरंतर बंध होता है। कदाचित् किसी को एक अंतर्मुहुर्त काल पर्यंत आठों कर्मों का भी बंध होता है। ७. दर्शनमोहनीय कर्म के तीन भेदों में से मात्र मिथ्यात्व कर्म का ही बंध होता है; मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति - इन दोनों की सत्ता होती है और इनका उदय भी होता है; परन्तु नियम से बंध नहीं होता। ८. मिथ्यात्व कर्म का क्षय स्वमुख से नहीं होता। मिथ्यात्व कर्म मिश्ररूप परिणमित होता है। मिश्र दर्शनमोहनीय कर्म सम्यक्प्रकृतिरूप से परिणमित होता है। तदनन्तर सम्यक्प्रकृति कर्म उदय में आकर स्वमुख से नष्ट होता है। इसी क्रम से मिथ्यात्व का नाश होता है। ९. अनंतानुबंधी कषाय कर्म का भी स्वमख से क्षय नहीं होता. उसका विसंयोजना द्वारा ही अभाव होता है। वास्तव में विचार किया जाय तो विसंयोजना का अर्थ सर्व संक्रमण ही है; तथापि विसंयोजित अनंतानुबंधी कषाय चौकड़ी कदाचित् फिर से संयोजित भी हो सकती है, इसलिए उसे विसंयोजना कहा है। अन्य चारित्रमोहनीय प्रकृतियों में विसंयोजना नहीं होती। १०. आयुकर्म का बंध निरंतर नहीं होता। भुज्यमान आयु कर्म (स्थितिबंध) के दो भाग व्यतीत हो जाने पर तीसरे भाग के प्रथम अंतर्मुहूर्त में (आयु ६० वर्ष की हो तो ४० वर्ष व्यतीत होने पर) प्रथम अपकर्ष काल होता है। उसमें नवीन आयु कर्म का बंध न हो तो शेष आयु के त्रिभाग में दसरा अपकर्ष काल होता है, उसमें आयुकर्म का बंध हो सकता है। यदि उसमें भी न हो तो इसी प्रकार क्रम से आठ त्रिभाग में से किसी ना किसी एक अपकर्ष काल में आयुकर्म का बंध हो सकता है। यदि आठों अपकर्ष कालों में आयु का बंध न हो तो मरण के अंतर्मुहूर्त पूर्व आयुकर्म का बंध अवश्य होता ही है। यह व्यवस्था कर्मभूमियाँ मनुष्य और तिर्यंच जीवों की हैं। देव और नारकियों में आयु के अंतिम छह मास में आठ अपकर्ष काल का नियम है। अथवा जिसे प्रथम अपकर्ष में या द्वितीयादि अपकर्ष काल में आयुबंध होगा तो शेष अपकर्षकालों में उसी-उसी का बंध हो सकेगा, होता ही है; ऐसा नियम नहीं। भोगभूमी के जीवों को आयु के अंतिम नव मास शेष रहे, तब आठ अपकर्षों में आयु के बंध का नियम है। (सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाग-२ पूर्वार्द्ध पृ. १९)
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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