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________________ १५८ गुणस्थान विवेचन की विसंयोजना करनेवाले साधुओं की शुद्धि/वीतरागता विशेष होती है; फिर भी होती तो भूमिका के अंदर ही। ६३. प्रश्न : अट्ठाईस मूलगुणों में से यदि मुनिराजों द्वारा एक-दो मूलगुणों का पालन न हो सके तो उन्हें मुनि माना जाय या नहीं ? उत्तर : अनंत तीर्थंकरों के परम सत्य उपदेश को आचार्यों ने शास्त्रों में लिपिबद्ध किया है। ऐसे परमश्रद्धेय एवं आराध्य शास्त्रों की आज्ञा मानना हमारा कर्तव्य है; जिनसे इहलोक तथा परलोक में जीव का आत्मकल्याण होता है। उन शास्त्रों की तो आज्ञा है कि २८ मूलगुणों का समग्र रीति से पालन करना ही सच्चे साधु का स्वरूप है। कदाचित् पूर्व संस्कारवश मूलगुणों के पालन में कुछ अतिचार भी लग सकते हैं। यदि एक-दो अथवा तीन-चार मूलगुणों का पालन न हो तो भी सच्चे गुरुपने की मान्यता स्वीकृत होने लगे, तो फिर ५-६ या ७-८ मूलगुणों के अभाव में भी गुरुपने की मान्यता रूढ हो सकती है या मात्र ४-५ मूलगुणों के पालन से भी गुरुपना मानने में आपत्ती नहीं रहेगी; कोई निश्चित नियम ही नहीं रह पायेगा। इसलिए अट्ठाईस मूलगुणों का पालन अखंड करना ही सच्चा गुरुपना है। 'मूलगुण' यह शब्द ही हमें बताता है कि गुरुपने के मूलगुण हैं अर्थात् इनके बिना गुरुपना संभव ही नहीं है, जैसे जड़ के बिना वृक्ष नहीं होता। इस तरह अट्ठाईस मूलगुणों की अनिवार्यता आगम, तर्क तथा युक्ति से भी यथार्थ सिद्ध होती है। १. जो कोई अट्ठाईस मूलगुणों का आगमानुसार निर्दोष पालन करते हैं, वे सच्चे गुरु हैं, ऐसी परिभाषा चरणानुयोग के शास्त्रों की मुख्यता से करना उचित ही है। सच्चे मुनिपने के विषय को अन्य अपेक्षाओं से भी हमें समझना आवश्यक है। अतः कुछ स्पष्टीकरण करते हैं। २. अनंतानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी के अनुदय के काल में ध्यान रहित तथा शुद्ध परिणति सहित अवस्था के समय मुनिराज प्रमत्तविरत गुणस्थान १५९ जिसप्रकार के बाह्य आचरण में प्रवृत्त होते हैं; उस आचरण को अट्ठाईस मूलगुण कहते हैं। ३. तीन कषाय चौकड़ी के अनुदय के काल में शुद्धोपयोग से छूटने पर शुभोपयोग की भूमिका में मुनिराज की जीवनचर्या को अट्ठाईस मूलगुण कहते हैं। ४. संज्वलन कषाय चौकड़ी के यथायोग्य तीव्र उदय के निमित्त से मुनिराज जिसप्रकार के आचरण में प्रवृत्त होते हैं; उसे अट्ठाईस मूलगुण कहते हैं। ६४. प्रश्न : क्या पुलाक आदि मुनि सच्चे मुनि नहीं होते ? पुलाक मुनि का क्या स्वरूप है ? उत्तर : “जो उत्तर गुणों की भावना से रहित हों और किसी क्षेत्र या काल में किसी मूलगुण में अतिचार लगावें तथा जिनके अल्प विशुद्धता हो, उन्हें पुलाक मुनि कहते हैं।" जैसे गर्मी की ऋतु में जंघा तक पैर धो लेना आदि। “पुलाक मुनि वैसे तो भावलिंगी सम्यग्दृष्टि मुनिराज ही होते हैं; परन्तु व्रतों के पालन में क्षणिक अल्पदोष हो जाते हैं, फिर भी यथाजातरूप ही हैं। (उन्हें तीन कषाय चौकड़ी के अनुदयपूर्वक भावलिंगपना होता है।) उन्हें सामायिक और छेदोपस्थापना दो संयम होते हैं।” (अधिक स्पष्टिकरण के लिए सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवृत्ति, अर्थप्रकाशिका आदि ग्रंथों को देखें।) धवला पुस्तक १ का अंश (पृष्ठ १७६ से १७८) सामान्य से प्रमत्तसंयत जीव हैं ।।१४।। प्रकर्ष से मत्त जीवों को प्रमत्त कहते हैं और अच्छी तरह से विरत या संयम को प्राप्त जीवों को संयत कहते हैं। जो प्रमत्त होते हुए भी संयत होते हैं, उन्हें प्रमत्तसंयत कहते हैं। १४. शंका - यदि छठवें गुणस्थानवी जीव प्रमत्त हैं तो संयत नहीं हो सकते हैं; क्योंकि प्रमत्त जीवों को अपने स्वरूप का संवेदन नहीं हो
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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