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________________ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान १२७ १२६ गुणस्थान विवेचन उत्तर : जिसप्रकार सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति और उसकी पूर्णता का उपाय एक निज शुद्धात्मा का ध्यान ही है; उसीप्रकार सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का उपाय भी एक निज शुद्धात्मा का ध्यान ही है, अन्य कोई उपाय नहीं है। सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र ये दोनों भाव आत्माश्रित वीतरागस्वरूप ही हैं और इन दोनों का निमित्तरूप से बाधक कर्म भी एक मोहनीय-दर्शनमोहनीय व चारित्रमोहनीय ही है। इसलिए इनकी प्राप्ति का उपाय भी एक आत्माश्रितपना ही है। इसकारण सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय भी एक निज शुद्धात्मा का ध्यान ही है; अन्य नहीं। धवला पुस्तक १ का अंश (पृष्ठ १७१ से १७४) सामान्य से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं ।।१२।। जिसकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं और संयमरहित सम्यग्दृष्टि को असंयतसम्यग्दृष्टि कहते हैं। वे सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकार के हैं - क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और औपशमिकसम्यग्दृष्टि। सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र गुण का घात करनेवाली चार अनन्तानुबन्धी प्रकृतियाँ और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्प्रकृति ये तीन दर्शनमोहनीय की प्रकृतियाँ, इसप्रकार इन सात प्रकृतियों के सर्वथा विनाश से जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि कहा जाता है । तथा इन्हीं सात प्रकृतियों के उपशम से जीव उपशमसम्यग्दृष्टि होता है। तथा जिसकी सम्यक्त्व संज्ञा है ऐसी दर्शनमोहनीय कर्म की भेदरूप प्रकृति के उदय से यह जीव वेदकसम्यग्दृष्टि कहलाता है। उनमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव कभी भी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता है, किसी प्रकार के संदेह को भी नहीं करता है और मिथ्यात्वजन्य अतिशयों को देखकर विस्मय को भी प्राप्त नहीं होता है। उपशम सम्यग्दृष्टि जीव भी इसी प्रकार का होता है; किन्तु परिणामों के निमित्त से उपशम सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व को जाता है, सासादन गुणस्थान को भी प्राप्त करता है, सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को भी पहुँच जाता है और वेदकसम्यक्त्व को भी प्राप्त कर लेता है। (उपशम सम्यग्दृष्टि के उपर्युक्त कथन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति करनेवाला जीव नियम से मिथ्यात्व को ही प्राप्त होता है, ऐसा नहीं है। उसे चार मार्ग है, जिसे ऊपर आचार्य श्री वीरसेन ने स्पष्ट किया है।) तथा जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव है वह शिथिलश्रद्धानी होता है, इसलिये वृद्ध पुरुष जिसप्रकार अपने हाथ में लकड़ी को शिथिलतापूर्वक पकड़ता है, उसीप्रकार वह भी तत्त्वार्थ के विषय में शिथिलग्राही होता है, अतः कुहेतु और कुदृष्टान्त से उसे सम्यक्त्व की विराधना करने में देर नहीं लगती है। __पांच प्रकार के भावों में से किन-किन भावों के आश्रय से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान की उत्पत्ति होती है ? इसप्रकार पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि सात प्रकृतियों के क्षय से जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है वह क्षायिक है, उन्हीं सात प्रकृतियों के उपशम से उत्पन्न हुआ सम्यक्त्व उपशमसम्यग्दर्शन होता है और सम्यक्त्व का एकदेश घातरूप से वेदन करानेवाली सम्यक् प्रकृति के उदय से उत्पन्न होनेवाला वेदकसम्यक्त्व क्षायोपशमिक है। ९. शंका - चौथे गुणस्थान से आगे असंयम का अभाव क्यों नहीं कहा? समाधान - आगे के गुणस्थानों में असंयम का अभाव इसलिए नहीं कहा; क्योंकि आगे के गुणस्थानों में सर्व संयमासंयम और संयम ये विशेषण पाये जाते हैं। इस सूत्र में जो सम्यग्दृष्टि पद है, वह गंगा नदी के प्रवाह के समान आगे के समस्त गुणस्थानों में अनुवृत्ति को प्राप्त होता है। अर्थात् पाँचवें आदि समस्त गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन पाया जाता है।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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