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________________ २४२ गुणस्थान विवेचन तीन कल्याणकवाले तीर्थंकर - जिन चरमशरीरी भव्य आत्माओं ने अपने वर्तमान मनुष्य भव के अविरतसम्यक्त्व या देशविरत गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ किया है, उनके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण कल्याणक - ऐसे तीन ही कल्याणक होते हैं। दो कल्याणकवाले तीर्थंकर - जिन चरमशरीरी भव्य आत्माओं ने वर्तमान प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया है। उनके मात्र केवलज्ञान और निर्वाण/मोक्ष कल्याणक ऐसे दो ही कल्याणक होते हैं। ५. मात्र सयोगकेवली गुणस्थानवर्ती अरहंतों का ही इच्छारहित उपदेश होता है। तदर्थ तीर्थंकर परमात्मा तीर्थंकर प्रकृति कर्म के उदय से समवसरण की रचना होती है। सामान्य केवलियों के लिए भी गंधकुटी की रचना भी सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर द्वारा होती है। सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक तो मुनिराज ध्यानारूढ़ रहते हैं, अतः उनका उपदेश नहीं होता । छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज, पंचम गुणस्थानवर्ती व्रती श्रावक तथा अव्रती श्रावक का उपदेश इच्छा पूर्वक ही होता है। जिनेन्द्र भगवान की स्वभावतः अस्खलित और अनुपम दिव्यध्वनि सर्वांग से तीनों संधिकालों में और मध्यरात्रि में भी छह-छह घड़ी तक (९ घंटे ३६ मिनिट पर्यंत) खिरती है और एक योजन पर्यंत सुनाई देती है। इसके अतिरिक्त विशेष पुण्यात्मा गणधरदेव, इंद्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुसार अर्थ के निरूपणार्थ वह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी खिरती है। एक योजन के भीतर दूर अथवा समीप बैठे हुये अठारह-महाभाषा और सात सौ लघु भाषाओं से युक्त ऐसे तिर्यंच, मनुष्य तथा देव की भाषारूप में परिणत होनेवाली तथा न्यूनता तथा अधिकता से रहित, मधुर, मनोहर, गंभीर, विशद, ऐसी भाषा को प्राप्त (जैनेन्द्र शब्दकोष भाग दूसरा पृष्ठ ४३१, ४३२) दिव्यध्वनि होती है।" तिलोयपण्णत्ती भाग २, गाथा ७२४, ७२५ के उल्लेखानुसार अवसर्पिणीकाल में होनेवाले २४ तीर्थंकरों के समवसरणों का प्रमाण सयोगकेवली गुणस्थान २४३ क्रमशः बारह योजन से प्रारंभ होता है; घटता हुआ अंतिम तीर्थंकर का समवसरण एक योजन का रह जाता है। गाथा ७२६ में उत्सर्पिणी काल के तीर्थंकरों के समवसरणों का प्रमाण उल्टे क्रम से चलता है अर्थात् प्रथम तीर्थंकर का एक योजन से प्रारंभ होता है और बढ़ता हुआ अंतिम तीर्थंकर का बारह योजन प्रमाण होता है। ६. यहाँ इंद्रियादि परनिमित्त निरपेक्ष/निःसहाय (स्वयं परिपूर्ण समर्थ) त्रिकालवी लोकालोक को युगपत जानने-देखनेवाला केवलज्ञान तथा केवलदर्शन उत्पन्न होते हैं। इन दोनों का परिणमन युगपत होता है। (देखिये - नियमसार गाथा १६०) छद्मस्थ अवस्था में जैसे जीव को प्रथम सामान्य अवलोकनरूप दर्शन होता है; पश्चात् विशेष अवलोकनरूप ज्ञान होता है; वैसे ही केवलदर्शन और केवलज्ञान के संबंध में भी क्रमिक दर्शन तथा ज्ञान की प्रवृत्ति को मानेंगे तो सयोगकेवली जिनेन्द्र सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी सिद्ध नहीं होंगे। १०९. प्रश्न : सयोगी जिनेन्द्र सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी कैसे सिद्ध नहीं होंगे? उत्तर : जिससमय केवलदर्शन होगा, उसीसमय केवलज्ञान नहीं होगा तो जिनेन्द्र सर्वज्ञ कैसे सिद्ध होंगे ? अल्पज्ञ ही सिद्ध होंगे। अतः सयोगकेवली अवस्था में दर्शन और ज्ञान - इन दोनों के उपयोगों की प्रवृत्ति युगपत ही होती है। ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण दोनों कर्मों का क्षय/अभाव भी एक समय में ही होता है। ७. इस सयोगकेवली गुणस्थान से इन्हीं को परमगुरु तथा परमात्मा संज्ञा प्राप्त होती है। ८. सम्यक्त्व के दस भेदों में से यहाँ सयोगकेवली का सम्यक्त्व परमावगाढ़ कहा जाता है। अब तक साधक मुनिराज अल्पज्ञ थे,
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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