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________________ २३४ गुणस्थान विवेचन धवला पुस्तक १ का अंश (पृष्ठ १९० से १९१) सामान्य से क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ जीव हैं ।। २० ।। जिनकी कषाय क्षीण हो गई है, उन्हें क्षीणकषाय कहते हैं। जो क्षीणकषाय होते हुए वीतराग होते हैं, उन्हें क्षीणकषायवीतराग कहते हैं। जो छद्म अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण में रहते हैं, उन्हें छद्मस्थ कहते हैं। जो क्षीणकषाय वीतराग होते हुए छद्मस्थ होते हैं उन्हें क्षीणकषायवीतराग-छद्मस्थ कहते हैं। इस सूत्र में आया हुआ छद्मस्थ पद अन्तदीपक है, इसलिये उसे पूर्ववर्ती समस्त गुणस्थानों के सावरणपने का सूचक समझना चाहिये । ३१. शंका - क्षीणकषाय जीव वीतराग ही होते हैं, इसमें किसी प्रकार का भी व्यभिचार नहीं आता, इसलिये सूत्र में वीतराग पद का ग्रहण करना निष्फल है ? समाधान - नहीं; क्योंकि, नाम, स्थापना आदि रूप क्षीणकषाय की निवृत्ति करना यही इस सूत्र में वीतराग पद के ग्रहण करने का फल है। अर्थात् इस गुणस्थान में नाम, स्थापना और द्रव्यरूप क्षीणकषाय का ग्रहण नहीं है; किन्तु भावरूप क्षीणकषायों का ही ग्रहण है, इस बात के प्रगट करने के लिये सूत्र में वीतराग पद दिया है। ३२. शंका - पाँच प्रकार के भावों में से किस भाव से इस गुणस्थान की उत्पत्ति होती है ? समाधान - मोहनीय कर्म के दो भेद हैं- द्रव्यमोहनीय और भावमोहनीय । इस गुणस्थान के पहले दोनों प्रकार के मोहनीय कर्मों का निरन्वय (सर्वथा) नाश हो जाता है, अतएव इस गुणस्थान की उत्पत्ति क्षायिक गुण से है। १३ सयोगकेवली गुणस्थान तेरहवें गुणस्थान का नाम सयोगकेवली है। यह क्षपकश्रेणी के चारों गुणस्थानों के बाद प्राप्त होनेवाला प्रथम गुणस्थान है। क्षीणमोह गुणस्थान में जो सुख पूर्णरूप से परिणमित हुआ था, अब वही सुख यहाँ केवलज्ञान के सद्भाव से अनंत सुखरूप से कहा गया है। जीव की सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व शक्ति का पूर्ण विकास हो गया है। शरीर सहित होने पर भी शरीर से निर्लेपता व निरपेक्षता का साक्षात् जीवन अर्थात् सयोग केवली अवस्था है। वीतरागता का फल ही सर्वज्ञता एवं सर्वदर्शित्व है, अब वह व्यक्त हो गया है। अरहंत अवस्था में निम्नोक्त अठारह दोष नष्ट हो गये हैंभूख, प्यास, बीमारी, बुढ़ापा, जन्म, मरण, भय, राग, द्वेष । गर्व, मोह, चिंता, मद, अचरज, निद्रा, अरति खेद अरु स्वेद ।। मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २ पर भी अरहंतों का स्वरूप अत्यंत मार्मिक रूप से स्पष्ट किया है। आंशिक कथन निम्नप्रकार है - "देवाधिदेवपने को प्राप्त हुए हैं। तथा आयुध, अंबरादिक व अंगविकारादिक जो काम क्रोध आदि निंद्यभावों के चिन्ह, उनसे रहित जिनका परम औदारिक शरीर हुआ है। जिनके वचनों से लोक में धर्मतीर्थ प्रवर्तता है, जिसके द्वारा जीवों का कल्याण होता है। जिनके लौकिक जीवों के प्रभुत्व मानने के कारणभूत अनेक अतिशय और नाना प्रकार के वैभव का संयुक्तपना पाया जाता है। जिनका अपने हित के अर्थ गणधर - इंद्रादिक उत्तम जीव सेवन करते हैं । - ऐसे सर्वप्रकार से पूजने योग्य श्री अरहंत देव हैं, उन्हें हमारा नमस्कार हो।"
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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