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________________ २२८ गुणस्थान विवेचन जैसे अल्प क्षयोपशम वाले मुनिराज को कम सुखी मानना पड़ेगा, जो शास्त्र तथा युक्ति से भी सम्मत नहीं हो सकता। अतः मोह से रहित वीतराग परिणाम ही निश्चय से सुख है। अब यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त मात्र काल व्यतीत हो जाने पर ये क्षीणमोही मुनिराज नियम से अरहंत परमात्मा हो जाते हैं। बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज, इस गुणस्थान के प्रथम समय से ही क्षीणमोही हो गये हैं। अर्थात् आठों कर्मों में से मोह कर्म का सर्वथा नाश हो गया है। वे इस गुणस्थान के प्रथम समय से ही अरहंत परमात्मा होने के लिए तीन घाति कर्मों की उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा कर रहे हैं। (असंख्यातगुणी निर्जरा तो आठवें गुणस्थान से ही चालू हो गयी थी) वीतराग हुए बिना सर्वज्ञ होना संभव नहीं है, यह बात सत्य होने पर भी वीतराग होते ही तत्काल बारहवें गुणस्थान के पहले समय में ही सर्वज्ञ नहीं होते हैं। १०७. प्रश्न : बारहवें गुणस्थान में क्षीणमोही होते ही सर्वज्ञ हो जाना चाहिए था; इसमें क्या आपत्ति है ? उत्तर : ज्ञानावरणादि तीन घाति कर्मों की सत्ता व उदय ही सर्वज्ञ होने में निमित्तरूप में बाधक है; क्योंकि दसवें गुणस्थान में भी राग परिणाम से ज्ञानावरणादि का बंध हुआ था। तथा पूर्वकाल में बंधे हुए कर्मों की भी सत्ता है, उनका क्षय होते ही केवलज्ञान होता है। तीन घातिकर्मों के नाश के लिये अंतर्मुहूर्त पर्यंत एकत्ववितर्कशुक्लध्यान/शुद्धोपयोग का होना आवश्यक है। मुनिराज वीतराग होने के बाद सर्वज्ञ होते हैं, यह सामान्य कथन है और पूर्ण वीतराग होने पर भी एक अंतर्मुहूर्त कालपर्यंत एकत्ववितर्कशुक्लध्यान/शुद्धोपयोग करने के बाद ही तीनों घातिकर्मों का क्षय होने से मुनिराज सर्वज्ञ होते हैं, यह कथन विशेष तथा सूक्ष्म है। (विशेष स्पष्टीकरण के लिए पंचास्तिकाय गाथा १५०-१५१ की टीका देखिये) यदि बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में ही मुनिराज सर्वज्ञ हो जाते हैं तो बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान का अभाव हो जायेगा और गुणस्थान चौदह के स्थान पर तेरह ही सिद्ध होंगे। क्षीणमोह गुणस्थान २२९ आचार्यश्री नेमिचंद्र ने गोम्मटसार गाथा ६२ में क्षीणमोह गुणस्थान की परिभाषा निम्नप्रकार दी है - णिस्सेसखीणमोहो, फलिहामलभायणुदयसमचित्तो। खीणकसायो भण्णदि, णिग्गंथो वीयरायेहिं।। स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए निर्मल जल के समान संपूर्ण कषायों के क्षय के समय होनेवाले जीव के अत्यंत निर्मल वीतरागी परिणामों को क्षीणमोह गुणस्थान कहते हैं। परिभाषा में क्षीणमोही जीव के वीतराग परिणाम को निर्मल जल की उपमा दी है। वह जल भी स्फटिकमणि के पात्र में रखा हुआ निर्मल जल है। यहाँ पात्र में से किसी भी प्रकार की गंदगी दुबारा पानी में आने की संभावना की शंका भी न हो, इसलिए स्फटिक मणि का पात्र लिया है। देखो, आचार्यों की सूक्ष्मदृष्टि ने पात्र (बर्तन) को कैसा विचारपूर्वक चुना है। महापुरुषों की दृष्टि में दृष्टांत भी अनुपम एवं मूल विषय के पोषक होते हैं । क्षीणमोही मुनिराज के भावी जीवन में किसी भी प्रकार की अशुद्धता की संभावना ही नहीं है। इस अभिप्राय को अत्यंत स्पष्ट करने के लिए ही स्फटिकमणिमयी पात्र में रखा हुआ निर्मल जल लिया है। क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती मुनिराज का मोह अब तो अनंतकाल के लिये नष्ट हो गया है। अंतिम सूक्ष्मलोभ कषाय का व्यय और पूर्ण वीतरागता का उत्पाद - इन दोनों की काल-प्रत्यासत्ति को अत्यंत स्पष्ट करने के लिए बारहवें गुणस्थान की परिभाषा में “कषायों के क्षय के समय' इन शब्दों का प्रयोग किया है। बारहवें गुणस्थान के नाम में प्रयुक्त क्षीण शब्द का अर्थ दुबला, निर्बल अथवा अशक्त नहीं करना चाहिए । यहाँ क्षीण शब्द का अर्थ अभाव/नाश है। वीतराग शब्द का शाब्दिक अर्थ है - “विगतः रागः यस्मात् सः वीतरागः" जिसमें से राग निकल गया है, उसे वीतराग कहते हैं। यहाँ
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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