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________________ २१४ गुणस्थान विवेचन वीतरागी हैं, उतने काल पर्यंत वे पूर्ण सुखी ही हैं। ज्ञानावरणादि तीनों घातिकर्मों का उदय होने से वे अल्पज्ञानी कहे जाते हैं। इसलिए अनंत सुखी नहीं हैं। मोह परिणाम का जितने काल तक सर्वथा उदयाभाव है, उतने काल तक वे पूर्णसुखी ही हैं। इसी विषय का भाव मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ७२ पर निम्न शब्दों में व्यक्त किया है - "जितनी-जितनी इच्छा मिटे उतना-उतना दुःख दूर होता है और जब मोह के सर्वथा अभाव से सर्व इच्छा का अभाव हो तब सर्व दुःख मिटता है, सच्चा सुख प्रगट होता है।" 'सर्व दुःख मिटता है, इसका ही अर्थ सुख पूर्ण होता है; यह स्पष्ट हुआ। पाप कर्म की सत्ता होने से किसी जीव का कुछ बिगाड़ नहीं होता और पुण्य कर्म की सत्ता होने से किसी जीव का कुछ सुधार नहीं होता। यदि जीव मोह परिणाम करता है तो जीव का बिगाड़ है; क्योंकि मोह स्वयं दःखमय भाव है। यदि जीव मोह परिणाम नहीं करता तो जीव का सुधार होता है; क्योंकि मोह के अभाव से उत्पन्न वीतरागभाव सुखमय है। जब जीव अपने अनादिकालीन अज्ञानवश कुसंस्कारों के अपराध से मोह परिणाम करता है, उसीसमय पूर्वबद्ध मोह कर्म का उदय निमित्तरूप से रहता ही है। जैसे मुनिराज पार्श्वनाथ पर मुनिजीवन में जब कमठ उपसर्ग कर रहा था, तब उन्हें भविष्य में उदय आनेवाली तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता ने कुछ मदद नहीं की थी; वैसे ही यहाँ मोहनीय कर्म सत्ता में होने पर भी वह मिट्टी के ढेले के समान ही है। उसका वर्तमानकालीन भावों से कोई भी निमित्त-नैमित्तिक संबंध नहीं है। आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६१ में उपशांतमोह गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - कदकफलजुदजलं वा, सरए सरवाणियं व णिम्मलयं । सयलोवसंतमोहो, उवसंत कसायओ होदि। निर्मली फल से सहित स्वच्छ जल के समान अथवा शरदकालीन सरोवर-जल के समान सर्व मोहोपशमन के समय व्यक्त होनेवाली पूर्ण वीतरागी दशा को उपशांतमोह गुणस्थान कहते हैं। उपशान्तमोह गुणस्थान ____ २१५ परिभाषा में उपशांतमोही जीव के वीतरागी परिणाम को स्वच्छ जल की उपमा दी है। कतकफल (निर्मली नाम की वनस्पति का बीज जो मलिन जल को निर्मल बनाने के लिये उपयोग में लाया जाता है) से निर्मल किया हुआ जल अर्थात् जल तो निर्मल हुआ है; तथापि मल नीचे दबा हुआ सत्ता में है; यह पहले दृष्टांत का भाव है। दूसरा दृष्टांत शरदकालीन सरोवर का लिया है; यहाँ भी जल तो निर्मल है; लेकिन नीचे कीचड़ का अस्तित्व है। फिर भी वर्तमान में उस स्वच्छ जल में मख या चन्द्रमा का प्रतिबिंब ज्यों का त्यों झलकता है। ___ इसका भाव यह है कि वर्तमान काल में तो वीतरागभाव पूर्ण निर्मल है; तथापि एक अंतर्मुहूर्त के बाद ही पूर्व संस्कारवश अपने अपराध से, कालक्षय या आयुक्षय हो जाने से रागादिरूप परिणमित हो जाता है। ग्यारहवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों का अंतरकरणरूप उपशम हुआ है। ९८. प्रश्न : अंतरकरणरूप उपशम किसे कहते हैं ? उत्तर : अध:करणादि द्वारा उपशम विधान से अनंतानुबंधी चतुष्क बिना मोहनीय कर्म की जो उपशमना होती है, उसे प्रशस्त उपशम कहते हैं। इसे ही अंतरकरणरूप उपशम भी कहते हैं। आगामी काल में उदय आने योग्य कर्म परमाणुओं को जीव के परिणाम विशेषरूप निमित्त होने से आगे-पीछे उदय में आने योग्य होने को अंतरकरणरूप उपशम कहते हैं। अंतरकरणरूप उपशम समझने के लिये परिशिष्ट क्रमांक ५ देखें यहाँ चारित्रमोहनीय के २१ प्रकृतियों को उपरितन तथा अधस्तनस्थिति में डालकर बीच का कुछ भाग २१ चारित्रमोहनीय कर्मों से रहित किया गया है। जब जीव अधस्तनस्थिति के कर्मों के उदय को पूर्ण भोगकर खाली जगह में आता है, तब स्वयं ही कर्म के रहितपने के कारण जीव को क्षायिक चारित्र के समान औपशमिक निर्मलभावरूप पूर्ण वीतराग चारित्र हो जाता है। इस ग्यारहवें गुणस्थान का पूर्ण नाम “उपशांतकषाय-वीतराग छद्मस्थ" है।
SR No.008350
Book TitleGunsthan Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size649 KB
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