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________________ चलते फिरते सिद्धों से गुरु ___धर्म से परिणमित स्वरूपवाला आत्मा यदि शुद्धोपयोग युक्त हो तो मोक्षसुख को प्राप्त करता है और यदि शुभोपयोगवाला हो तो स्वर्गसुख को प्राप्त करता है; इसलिए शुभोपयोगी भी धर्म का सद्भाव होने से श्रमण हैं, किन्तु वे शुद्धोपयोगियों के समान कोटि के नहीं हैं; क्योंकि शुद्धोपयोगी निरास्रव ही है और शुभोपयोगी कषाय कण के विनष्ट न होने से सास्रव हैं।'' बनारसीदासजी ने मुनि की महिमा में कहा है कि - ग्यान को उजागर, सहज-सुखसागर। सुगुन-रतनागर, विराग-रस भस्यो है।। सरन की रीति हरै, मरन कौ न भै करै। ___ करन सौं पीठि दे, चरन अनुसस्यो है।। धरम कौ मंडन, भरम को विहडंन है। परम नरम है कै, करम सौं लस्यो है।। ऐसौ मुनिराज, भुविलोक में विराजमान । निरखि बनारसी, नमस्कार कस्यो है ।।५।। अर्थात् जो ज्ञान के प्रकाशक हैं, साहजिक आत्मसुख के समुद्र हैं, सम्यक्त्वादि गुणरत्नों की खान हैं, वैराग्य-रस से परिपूर्ण हैं, किसी का आश्रय नहीं चाहते, मृत्यु से नहीं डरते, इन्द्रिय-विषयों से विरक्त होकर चारित्र पालन करते हैं, जिनसे धर्म की शोभा है, जो मिथ्यात्व का नाश करनेवाले हैं, जो कर्मों के साथ अत्यन्त शान्तिपूर्वक लड़ते हैं; ऐसे साधु को पण्डित बनारसीदासजी नमस्कार करते हैं।" इतना कहकर आचार्चश्री ने आज के प्रवचन को विराम दे दिया। आचार्यश्री का मुनिधर्म साधन की प्रक्रिया से संबंधित सारगर्भित सामयिक प्रवचन सुनकर सम्पूर्ण सभा आनन्दित और गद्गद् हो गई। अन्त में जिनवाणी की स्तुति के साथ धर्म सभा विसर्जित हुई। १. भावपाहुड, गाथा २,३,४ एवं ६ २. रयणसार, गाथा १९, ९९ ३. प्रवचनसार गाथा ११ एवं २४५ की तत्त्वप्रदीपिका टीका ४. प्रवचनसार, गाथा २१४ ५. नाटक समयसार, छन्द-५ "यद्यपि मुनिमार्ग अत्यन्त स्वाधीन, स्वतंत्र और परनिरपेक्ष होता है, फिर भी करुणा की साक्षात् मूर्ति होने से दुःखमय संसार सागर में गोते लगाते हुए जीवों को दु:खी देखकर मुनिराजों को सहज ही ऐसी करुणा आती है कि इतने अनुकूल संयोगों में भी यदि तत्त्वज्ञान इनके हाथ नहीं लगा तो फिर पुन: यह दुर्लभ अवसर मिलना सहज नहीं है। अतः अपने ध्यान-अध्ययन में से थोड़ा सा समय इन्हें दे दिया जाय और हमारे निमित्त से इनका भला हो जाय तो मेरा (छठवें गुणस्थान की) भूमिका में इससे बढ़ कर और कोई करने योग्य कार्य नहीं है। ज्ञानदान ही सबसे बड़ा दान है।" यह सोच-सोच कर आचार्य स्वयं भी तत्त्वोपदेश देते हैं और अन्य उपाध्याय वर्ग से भी प्रवचन करने की प्रेरणा करते हैं, आदेश देते हैं। भव्य जीवों के भाग्य से आचार्यश्री ने अपने उपदेश को प्रारंभ करते हुए दिगम्बर मुनि के स्वरूप और चर्या के संबंध में कहा - "लोकोत्तर मोक्ष सुख का साक्षात् साधन सम्यक्त्व सहित दिगम्बर मुनिपना ही है। णमोकार महामंत्र के ‘णमो लोए सव्व साहणं' पद द्वारा मुनि को पंचपरमेष्ठी में सम्मिलित कर नमन किया गया है। ये वीतराग पथ के पथिक हैं। आत्मा की साधना एवं कारण परमात्मा की आराधना ही परमात्मपद प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। अतः सभी इस दिशा में अग्रसर हों - ऐसी हमारी भावना है।" ___ “दिशायें ही हैं अम्बर जिनके ऐसे दिगम्बर 'शब्द' को सार्थक करनेवाले मुनिराज आरंभ और परिग्रह के सर्वथा त्यागी होते हैं। पाँचों इन्द्रियों के विषयों पर सम्पूर्ण रूप से विजय प्राप्त करनेवाले मुनिराज चारों कषायों के भी विजेता होते हैं । तपस्वी साधु निरन्तर ज्ञान, ध्यान और तप में ही लीन रहते हैं।" 17
SR No.008347
Book TitleChalte Phirte Siddho se Guru
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size400 KB
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